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'प्रचक को आपने निकट से तो नहीं देखा न.''
"मैंन सबको देखा है। मैं तीन लोगों को उन कैदियों में से चुनकर दिखाऊँगा। इन लीनों को अलग-अलग रखिए। महादण्इनायक की पुत्रियों को बलवाकर फिर एक एक करके इन लोगों को भी बुलवाकर उनसे सन्निधान पूछे कि वे उन्हें जानती हैं या नहीं।"
'हम यह काम नहीं कर सकते।" "तो मेरे प्रयत्न के लिए आपका सहयोग नहीं रहा, है न?" "हम ही क्यों पूछे, तुप ही उनसे पूछ लो।" "परन्तु इस काम को सन्निधान के समक्ष ही करना होगा।" "यह काम तुम खुद कगे और अपना निणंब बता दो; हम स्वीकार करेंगे।"
"एसी जिम्मेदारी को मैं उठा नहीं सकता। सब सन्निधान की उपस्थिति में ही होना चाहिए।"
"टीक है. ऐसा ही हो।
दूसरे ही दिन बिट्टिदेव के विचार क्रियान्वित हुए। महाराज बल्लाल के झालावा. गला, पला . और जेन वहाँ उपस्थित थीं। बिट्टिदेव के आदेश से एक कैदी हाज़िर हुआ।
विहिदेव ने उससे पूछा, “यहाँ बैठी इन लड़कियों से तुम परिचित हो: वताओ, ये कौन हैं?"
उसने कहा, "नहीं जानता, मालिक ।" फिर चारों लड़कियों से अलग-अलग बिट्टिदेव ने पूछा, “इसे जानती हो?" "मैं नहीं जानती," अलग-अलग सभी ने कहा। फिर बिट्टिदेव ने पूछा, ''सन्निधान इस व्यक्ति को पहचानते हैं?" ''हाँ, हम जानते हैं।' महाराज बल्लाल ने कहा। "ठीक, इसे अलग ले आओ।' ब्रिट्टिदेव बोले । फिर विट्टिदेव के आदेश से दूसरे कैदी को लाया गया। विट्टिदेव ने उससे भी नहीं प्रश्न क्रिया, "तुम इन लड़कियों को जानते हो?" उसने कहा, "हाँ, जानता हैं।" फिर उन्होंने पहले की तरह प्रत्येक लड़की से पूछा, "क्या इसे जानती हैं?''
दण्डनायक की बेटियों ने कहा, "हाँ, हम जानती हैं।" पर शान्तला ने कहा, "मैं नहीं जानती।"
उसे भी दूसरी जगह ले जाकर रखा गया। बाद में एक स्त्री कँदी को लाया
गया।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग हो :: 217