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सतर्कता से व्यवहार करना होता है।"
"यानी जनता की इच्छा-अनिच्छा को समझकर हमें अपनी अधांगिनी को चुनना होगा।" ___"जनता कभी यह नहीं चाहती। हमें ही यह देखना होगा कि एक नारी यह न कहे कि राजा ने उसके प्रति अन्याय किया। राजाओं के प्रत्येक काम को जनता ध्यान से देखती है। जनता की हार्दिक पसन्दगी राष्ट्र-निष्टा के लिए प्रेरक शक्ति है। जनता अपनी नापसन्दगी व्यक्त न भी करे तो भी वह अच्छा नहीं है।"
"नापसन्दगी को अव्यक्त ही क्यों रखते हैं."
"अधिकार के डर से, शक्ति से डरकर। इसलिए राष्ट्र की जनता में किसी के भी मन में किसी भी तरह की नापसन्दगी का कारण हमें नहीं बनना चाहिए। अगर नापसन्दगी कहीं दिखे तो हमें उसका निवारण करना होगा।"
''तो हमें दण्डनायक के मन में उत्पन्न हुए असन्तोष से डरकर सिर झुकाना
होगा।"
___इस प्रसंग में सबके दिपायों में केवः दापोह या काल्पनिक विचारों ने घर कर लिया है और पता नहीं क्या-क्या परिवर्तन इन विचारों ने ला रखा है! मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि सन्निधान जो भी निर्णय लें, वास्तविक स्थिति को जानकर लें।"
"क्या हम वास्तविक स्थिति को जान सकते हैं? कोई सच न बोले लो?"
"हमें ऐसी शंका हो नहीं करनी है। बात कहने के ढंग से झूठ-सच का पता लग जाएगा। हमें भी खुले दिल से विषय का परिशीलन करना होगा। सन्निधान अगर ग़लत न मानें तो एक बात पूछना चाहता हूँ।"
"पूछो, छोटे अप्पाजी।" "क्या माँ ने कहा है कि यह विवाह नहीं होना चाहिए?''
"माँ ने ऐसा कुछ नहीं कहा ! कभी बात उठी ती इतना ही कहा था कि 'तुम्हारा निर्णय ही मेरा निर्णय है।' सो भी बहुत दिन पहले, तब जब प्रभु जीवित थे। इधर माँ से इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं हुई है। ___ "सन्निधान जिस कन्या का पाणिग्रहण करें उसे माताजी भी स्वीकार करें-यही सन्निधान का विचार है न?"
"माँ के निर्णय पर हमें विश्वाप्त है। पहले से हम इसी अभिप्राय पर दृढ़ रहते तो यह पेचीदगी ही नहीं होती। हमें अब लगता है कि हमारी चंचलता और जल्दबाजी के कारण ही ऐसी सन्दिग्ध स्थिति आची है। वास्तव में कवि नागचन्द्र के शिष्य बनने और प्रभु के साथ युद्धभूमि में जाकर लौटने के बाद, हम और ही व्यक्ति बन गये हैं। उस पुराने विचार पर अटके रहना मानो अविवेकपूर्ण
पट्टपहादेशरी शान्तला : भाग दो :: 215