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"वह सन्निधान का अनुमान होगा। क्या प्रभु ने स्पष्ट कहा था कि यह सम्बन्ध नहीं होना चाहिए?"
"नहीं!" "तो हम क्यों सोचें कि उनका यही उद्देश्य था।" बल्लाल कुछ न बोले।।
"और फिर दण्डनायक की बेटी को सन्निधान ने स्वीकार करने का निर्णय कर जब वचन दिया था तब पहले प्रभु की सहमति लेने की बात सोची थी?"
इस बार भी वालाल चुप रह आये।
पुरुष नारियों को चाहकर, अपने साथ कइयों को रख ले, परन्तु नारी...कोई चाहे श्रीक लगे या न लगे। एक बार जिससे पाणिग्रहण हो जाए उसी को देवता मानकर उसी के साथ जीवनयापन करने की उदारता दिखाती है। सारे जीवन में उसी एक के साथ रहती और अपना सर्वस्व उसे समर्पित करती हैं। ऐसी समपिता नारी को छोड़ने का भी कोई कारण होना चाहिए न?"
इस बार भी बल्लाल ने कुछ नहीं कहा। शायद वह अपने अन्तरंग को टटोल रहे थे।
"सन्निधान जानते हैं कि हमारी संस्कृति में नारी को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यह स्थान उसे उसकी निष्ठा के कारण, उसके त्याग के कारण, उसकी उदारता के कारण, उसकी करुणा के कारण, उसकी क्षमाशीलता के कारण, मानव-जीवन में पड़ सकनेवाली दरारों को पाटकर समतल कर सकने की शक्ति रखने के कारण, उसे सहज ही प्राप्त है। ऐसी नारी को दुःख देना क्या उचित है?"
"नारी होने के नाते वह कुछ भी करे, उसे क्षमा कर देना चाहिए छोटे अप्पाजी?"
मैंने यह नहीं कहा। क्या गलती है इसे जाने बिना और साबित हुए बिना कोई निर्णय लेना ठीक होगा? सन्निधान को सोचना चाहिए।"
"अब तुम्हारी क्या सलाह है? इस विषय में हमें स्वतन्त्रता नहीं होगी?"
“सन्निधान की स्वतन्त्रता छीनना मेरा उद्देश्य नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि लोग यह न कहें कि सन्निधान की ग़लतफ़हमी के कारण एक नारी के साथ अन्याय हुआ। प्रत्यक्ष को भी प्रमाणित होना चाहिए। विशेषकर हम जैसे ज़िम्मेदार लोगों को इतनी स्वतन्त्रता नहीं होती है।"
"हमारी विशेषता क्या है?"
"राजपद । राजपद के पाने यह नहीं कि हम पूर्णतः स्वतन्त्र हैं, जो जी में आए, करें। हमारा ऐसा बर्ताव होना चाहिए जो लोगों को अँचे। इसलिए हमें बड़ी
214 :: पहमहादेवी शान्तला : भाग दो