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"महामातृश्री को मालूम है?" "नहीं।" "क्यों नहीं बताया?"
"ऐसी मामूली-सी बातों को महामातृश्री तक बताते फिरना उचित नहीं। चामधे की भी यही राय थी।"
"महामातृश्री को बताना चाहिए था।" "जैसी आज्ञा ।"
"हमें खबर मिली है कि हमने आपको युद्धक्षेत्र में आने से मना कर दिया, आप असन्तुष्ट हैं।"
"असन्तोष नहीं, परेशानी हुई।" । "मत्तलब?''
"इस राजमहल का अन्न खाकर पला यह शरीर वक्त पर काम नहीं आया तो इसका क्या लाभ ? इसलिए परेशानी है। मुझे अपने ही ऊपर घृणा हो गयी है।"
"यहाँ आपने जो काम किया वह किसी दूसरे को तो करना ही पड़ता न"
''मैं थोड़ा हूँ। मेरा काम युद्धभूमि का है जबकि इसके लिए मैं अयोग्य माना गया।"
"ऐसी भावना आपके मन में क्यों आयी?" "उसे समझाकर बता सकने की शक्ति मुझमें नहीं है।" ।
"अप अकारण परेशान हो रहे हैं। आपकी ही तरह और भी अनेक लोग राजधानी में रहकर काम करते रहे। नागदेव, पद्मनाभय्या, मारसिंगय्या आदि तो यहीं रहे।
"उनमें से कोई पोय्सल राज्य का महादण्डनायक नहीं। युद्ध के आरम्भ के समय जो विश्वास सन्निधान का मुझ पर रहा, उसे वैसा ही रखने का भाग्य मेरा न रहा।" ___ 'क्या कहकर समझाने से आप सन्तुष्ट होंगे? राजकुल ने कभी आप पर अविश्वास नहीं किया। प्रभु के जीवित रहते समय किसी प्रसंग में सन्देह हुआ जरूर परन्तु सच बोलकर आप उनके गौरव का पात्र बने रहे। ऐसी दशा में अविश्वास का प्रश्न ही कहाँ उठता है? जो बात है नहीं उसकी कल्पना क्यों कर लेते हैं? आप लोग तो राष्ट्र के रक्षा कवच हैं।...आप राजपहल के वैद्य को बुला ले जाइए।"
"जो आज्ञा।" "वहाँ से आकर वैद्यजी मुझे भी बता दें उन्हें कह दीजिए।" "जो आज्ञा।" प्रणाम करके मरियाने चले गये।
पट्टमछादेवी शान्तला : भाग दो :: 21]