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हाथी लुढ़क गया। हौदा झुक गया। हाथी के पैरों के नीचे गिरने के डर से वह हौटे से कूद पड़ा और तलवार ले उसे चमकाने लगा। बल्लाल भी अपने घोड़े से कूटकर अपनी तलवार ले लड़ने को आ इटे। महाराज को घोड़े से उतरते देख मंगराज ने अपने घोड़े को उसी तरफ घुमा दिया। गंगराज के घोड़े को दूसरी ओर घूमते देख डाकरस ने भी अपने घोड़े को उसी तरफ़ मोड़ दिया। उनके आते-आते बल्लाल ने जग्गदेव की तलवार को उड़ाकर उसकी छाती पर लटके पदक को खींच लिया था। पदक के जोर से खींचे जाने के कारण जग्गदेव नीचे लुढ़क गया।
राजा को नीचे गिरते देख सान्तरों की सेना पीछे हटने लगी। सान्तरों के चारछ: सैनिक उस तरफ भागे-भागे आये। उनमें से एक कूदकर जग्मदेव के सामने आकर खड़ा हो गया। यह सब क्षण-भर में हो गया था। ''देखो, जग्गदेव उधर भागा जा रहा है।" कहता हुआ चिट्टिदेव उधर आ ही रहे थे कि इतने में वहाँ एक लोटा युद्ध ही शुरू हो गया। जग्गदेव अपनी सेना की आड़ में जान बचाकर लापता हो गया। उसे भागने का समय मिल जाए इसी खयाल से इन सान्नरों के सैनिकों ने युद्ध का खाँग रचा धा। बाद में ये भी चम्पत हो गये।
पारसलों की सेना ने शत्र-सेना के जितने लोग हाथ लगे. उतनों को गिरफ्तार कर लिया, जो भी शस्त्रास्त्र हाथ लगे सब बटोर लिये गये। शत्रओं के हाथी, घोड़े, भण्डार सब बटोरकर जय-जयकार करते हुए गाजे-बाजे के साथ राजधानी में पांसल सेना ने प्रवेश किया।
राजधानी की प्रजा को शरणस्थली में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। बड़ी धूमधाम के साथ विजयोत्सव मनाया गया। इस अवसर पर गंगराज ने महाराज बल्लाल के बुद्धिचातुर्य और धैर्य की हृदय से भूरि-भूरि प्रशंसा की। बिट्टिदेव की स्फूर्ति और युद्ध-कौशल की भी बड़ाई की। इस सन्दर्भ में, विजय पाने के लिए महाराज ने जिस स्फूर्ति और शीघ्रता की रीति से सैन्य का संचालन किया, उसके उपलक्ष्य में 'बगि-बलुदेव' की उपाधि से महाराज बल्लाल को विभूषित किया गया
और छोटे अप्पाजी बिट्टिदेव को 'जग्गदेव-सैन्य-निर्मूलन-भैरव' के पद से विभूषित किया गया। इसी सन्दर्भ में एक बात गंगराज ने कहना आवश्यक समझकर निवेदन किया, "मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि हमें आगे रखकर सन्निधान को पीछे ही रहना चाहिए। हमने प्रभु को जो वचन दिया है, उसे राष्ट्रहित कं विचार से दिया है, अपने स्वार्थ से नहीं। इसीलिए भगवान की कृपा से हमें सन्निधान सुरक्षित मिले। सन्निधान और जग्गदेव के उस द्वन्हयुद्ध को जब देखा तब दिल दहल गया। जिस किसी को वह दृश्य देखने को मिलता, उसकी वही दशा होती। इस विजयोत्सव के आनन्द 4 भागी होने के लिए चिण्णम दण्डनाथ जीवित होते और देखते तो अपार आनन्द का अनुभव करते।'' यह कहकर उन्होंन
पमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 2011