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धाव ने फिर महामातृश्री की ओर देखा । महामातृश्री ने दोनों हाथ आगे चढ़ाकर बच्चे को ले लिया ।
बच्चे को देखकर महामातृश्री एचलदेवी ने कहा, "आपका बेटा बड़ा सुन्दर है। दाविका जी मेरी है कि आपका बेटा आयुधा और कीर्तिशाली हो।" बच्चा इतने में जाग गया, आँखें खोल दीं। हाथ उठाकर हिलाने लगा । शान्तला ने थोड़ा-सा झुककर उसका हाथ पकड़ा, बच्चा हँसने लगा ।
" सन्निधान का आशीर्वाद पूर्ण हो। मेरी दो विनती हैं। मैं अपने पतिदेव से कहकर उनकी सम्मति ले आपकी सेवा में निवेदन करना चाहती थी। लेकिन अब वह नहीं हो सकता। वे युद्धक्षेत्र में शत्रुओं के खून बहाने में मस्त हैं। युद्ध समाप्त होकर उनके लौट आने तक मैं जीवित नहीं रहूंगी।"
"ऐसा मत कहिए, दण्डनायिका जी कुछ कमजोर होने मात्र से आपको यह सब नहीं सोचना चाहिए। सब ठीक हो जाएगा।" एचलदेवी ने कहा ।
"मैं अपनी हालत अच्छी तरह समझती हूँ, राजमाता। इसलिए मैं आपकी सेवा में अपनी विनती प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वह मेरी अन्तिम आकांक्षाएँ हैं, आप इन्हें पूरा करेंगी, ऐसा मुझे भरोसा है।" चन्दलदेवी ने धीमे से कहा ।
"राजघराने ने कब किसकी सात्त्विक आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया है, दण्डनायिका जी ! राजघराना आपकी आशा-आकांक्षाओं की पूर्ण करेगा ।"
"अगर मेरी हैसियत से भी अधिक की आकांक्षा हो तो?"
"ऐसी कोई आकांक्षा आपके मुँह पर आएगी ही नहीं। आप अधिक बातचीत करने से थक जाएँगी।"
"यह धक्काबट जल्दी ही सदा के लिए मिट जाएगी, मेरा अन्तरंग यही कह रहा है। इसलिए जो कहना चाहती हूँ उसे कह डालने की आज्ञा दीजिए।" "कहिए।"
बच्चे को इस तरह लिये रहने से महामातृश्री के हाथ न थक जाएँ यह सोचकर शान्तला ने धीरे से कहा, "मैं बच्चे को अपने हाथों में ले लूँ?"
चन्दलदेवी की दृष्टि शान्तला की ओर गयी। "ले लो अम्माजी। अच्छे पुण्यवानी के हाथों में पलकर बच्चा बड़ा हो और अपने वंश की कीर्ति बढ़ाए, में यही चाहती हूँ । दण्डनाथ को छोटे अप्पाजी पर बहुत गर्व है। अपना बच्चा भी उनके जैसा बने, यही उनकी आकांक्षा है। युद्धक्षेत्र से लौटने पर में स्वयं यह प्रार्थना करेंगे। उन्होंने कुलदेवता की मनौती की थी कि यदि इस बार पुत्र सन्तान हो तो उसका नाम 'बिट्टि' ही रखेंगे। यह शायद अनुचित आशा हो, फिर भी निवेदन कर रही हूँ डरते-डरते। उसे इस नाम से अभिहित करने का अनुग्रह राजघराना करे - यही निवेदन है। मेरे न होने अथवा दण्डनाथ के युद्धभूमि से न
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 201