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एक तृप्ति की छाया झलक आयी। उसने बड़ी कठिनाई से धीरे-धीरे अपने दोनों हाथ छाती पर लाकर जोड़ लिये, उन्हें उठा न सकी। फिर धीरे से एक हाथ थोड़ा उठाकर बैठने का अनुरोध किया। मार्चिकब्बे और एचलदेवी दोनों उनके दोनों तरफ़ बैठ गयीं। शान्तला दूर खड़ी रही।
चन्दलदेवी ने बहुत परिश्रम से अपना दायाँ हाथ धीरे से एचलदेवी की गोद में सरकाकर, प्रयास से साँस लेकर धीमी आवाज़ में कहा, "भगवान ने कम-से-कम मुझ पर इतनी कृपा तो की ।"
"भगवान में आपको सब कुछ दिया है। आप बड़ी भाग्यवती हैं।" स्नेह व सहानुभूति से एचलदेवी बोलीं ।"
"वही, कुछ सान्त्वना है ! परन्तु...
"परन्तु क्या?"
"परन्तु..." कहते-कहते उसका गला भर जाया ।
उधर माचिकब्बे मन में उमड़ती पीड़ा को रोकने की अथक कोशिश कर रही थी। उससे जब नहीं रहा गया तो वह फफक पड़ी।
एचलदेवी ने माचिकब्बे और चन्दलदेवी, दोनों को ढाढस बँधाया। थोड़ी देर वहीं मौन छाया रहा ।
कुछ देर बाद अपने रस्ते होटों को जीभ से तर करते हुए चन्दलदेवी ने कहा, "बच्चा... कहाँ ?”
"बगल के कमरे में सोया है " धाय ने कहा ।
"उठाकर ले आओ।"
" सो रहा है। हम खुद जाकर देख आएँगे। आप चिन्ता न करें।" एचलदेवी ने समझायी ।
“इस समय वे भी तो सामने नहीं हैं। अब इस वक़्त जब आखिरी साँस ले रही हूँ बच्चे को देखे बिना कैसे रहूँ? हाय, बच्चे को लाइए। उसको देखते हुए अन्तिम साँस निकल जाए ।" एक साँस में बोल न पाने के कारण चन्दलदेवी रुक-रुककर बोलीं ।
धाय ने महामातृश्री की ओर देखा। उन्होंने कहा, "माँ की सहज इच्छा होती है कि बच्चा पास रहे। बच्चे को जगाये बिना धीरे से उठा लाओ। यहीं लाकर सुला दो ।"
धाय गयी और बच्चे को ले आयी ।
शान्तला धाय के पीछे यन्त्र चालित-सी गयी और लौटकर महामातृश्री के निकट खड़ी हो गयी। बच्चे को बग़ल में लिटाते देख चन्दलदेवी ने कहा, "बच्चे को सन्निधान के हाथों में दो "
200 पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो