________________
हैं, अभ्माजी ?"
"यों ही कुछ कहा तो आपको ऐसा लगा कि मैंने महाराज की टीका की है; है न पिताजी ?"
"मुझे क्या लगता है, सो सच कह दूँ, बेटी ?"
"हाँ, कहिए, पिताजी "
"तुमसे कुछ मैंने छिपा रखा है, यह तुम्हें लग रहा है। यह बात सीधी न बताकर राजमहल, आज्ञा, महाराज का आदेश वगैरह-वगैरह कर रही हो। तुमने कहा कि महाराज शीघ्रकोपी हैं। बताओ तो ऐसा कहने का क्या कारण है?"
"उतना प्रेम करने के बाद उदासीन होना यही सिद्ध करता हूँ कि वह असंयमी हैं। ऐसे असंभव ही शीघ्र क्रोधित हो सकते हैं। "
"यह बात इतनी आसान नहीं कि चर्चा की जा सके। यह तुम्हारी समझ से कहीं अधिक गहरी बात है ।"
"कितनी गहरी है, जान सकती हूँ?"
"मुझे भी ज्यादा ब्यौरा मालूम नहीं । उस दिन हमारे घर में खाद की ढेरी में सेज ताबीज़ निकले, शायद इसमें उनकी भी कोई भूमिका रही हो। प्रधानजी भी महादण्डनायक जी की लड़की के सम्बन्ध में बहुत चिन्तित हो गये हैं। "
"खाली चिन्तित होने से क्या होता है, पिलाजी? एक पवित्र निर्दोष लड़की का जोवन जलकर खाक बन जाना चाहिए क्या?"
"कोई यह नहीं चाहता कि ऐसा हो । परन्तु वर्तमान स्थिति ही कुछ ऐसी बन गयी है कि इस समस्या का कोई हल ही नहीं मिल रहा है। उसे हल करना असाध्य कार्य है। अब समय भी ऐसा आया है कि इस सम्बन्ध में सोचने के लिए फ़ुरसत भी नहीं है। सुना कि इस बात का तुमने छोटे अप्पाजी से पता भी लगा लिया है। इसलिए अब इस बात पर चर्चा को जरूरत ही क्या है।"
पिता-पुत्री की बातचीत सुनती माचिकब्बे खाना भूल बैठी और थाली में ही उसका हाथ ज्यों-का-त्यों रह गया। उसने एकदम कहा, "तो अब पिता और पुत्री गुप्तचरी के काम में लगे हैं। आप राजनीति-निपुण हैं, वह बुद्धिमती लड़की है। आप दोनों के बीच में मुझ जैसी बेवकूफ़ के लिए जगह कहाँ? कैसे-कैसे मौकों पर कितने ही रहस्यपूर्ण विषयों को मैंने गुप्त रखा है। उस समय मुझ पर विश्वास था तो जब मैंने ऐसा क्या किया जो मुझ पर अविश्वास हो गया?" इस बात से उनके दिल को कुछ चोट भी लगी थी।
I
"तुम अपनी तुलना किसी से न करो अभी जो क्रोध तुम्हें आया हैं वह अकारण ही प्रतीत होता है। अब तुम्हारी समझ से ऐसा क्या हुआ है कि तुमने विश्वास खो दिया
180 ::
-33
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो