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"मुँह बन्द कर!" मरियाने ने गरजकर छाँट दिया।
यह गर्जन सुन पद्मला की छाती धड़कने लगो। अपने पिता को इस तरह क्रोध में जोरदार झिड़की देते उसने कभी नहीं देखा था।
"मुझ पर क्यों गुस्सा करते हैं? सच्ची बात कही तो इतना शोर क्यों?"
"अगर सच्ची बात कहना-समझना इस जिन्दगी में तुम सीख लेती तो मेरी और मेरी बेटियों की जिन्दगी यों बरबाद न हुई होती, इस बुढ़ापे में मेरे जीवन पर कलंक नहीं लगता।" ___ "उन्होंने ऐसा भी किया।
"उन्होंने नहीं; इस सबका कारण तो तुम हो। अम्माजी, मुझे क्षमा करना बेंटी। तुम्हारा भविष्य सन्दिग्ध स्थिति में पड़ा है, इसका कारण क्या है यह तुम नहीं जानती । इसका कारण तुम्हारी मां के कार्य हैं। उसने जो किया, उसके साथ मैंने जी सहानुभूति दिखायी. उसी का यह परिणाम है। वास्तव में महाराज, महामातृश्री हमारे पूरे परिवार को ही शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं। ये उदार हैं, इसलिए हमें दण्द न देकर चुपचाप बैठे हैं। उनकी उदारता और बड़प्पन की हम बराबरी नहीं कर सकते। तुम्हारी माँ के स्वार्थ ने उससे ऐसा कराया जिसे करना नहीं चाहिए। उसके इस नीच कार्य के कारण अब हमें मुंह छिपाकर कहीं भाग जाना होगा। इस आखिरी वक्त पर यदि यह कहा जाए कि मेरे सेना नायकत्व की उन्हें ज़रूरत नहीं तो यही समझना चाहिए कि उनका हम पर विश्वास नहीं रह गया है। महारानी केलेयब्बरसी जी के प्रेम, आदर तथा औदार्य में पलकर यह शरीर बढ़ा है, और यह आज राष्ट्र-रक्षा के कार्य के लिए अनुपयुक्त माना गया है। अब जिन्दा रहने का क्या प्रयोजन?" फिर दण्डनायिका की ओर मुड़कर बोले, "तुम अली प्रधान को बहिन और दण्डनायिका बनकर अकड़ती रहो। मैं और मेरी बेटियों कहीं दूर चले जाएँगे। वो अपमानित होकर जीवन बिताते यहाँ रहना मुझसे सम्भव नहीं। इस सबका कारण हो तुम। तुम्हारा उस वामाचारी का आश्रय लेना, तुम्हारा उसकं यहाँ जाना, उसे रहस्यमय ढंग से अपने यहाँ बुलवाना-उसी सबका यह नतीजा है। पागल बनकर वह अंजन लगवाने का काम क्यों कराया? मेरी और मेरी बच्चियों की इस दुर्दशा का मुख्य कारण यही है। बेटी चलो, क्या सब गुजरा है। उसे बता देने से मेरे दिल का बोझ कम हो जाएगा, चलो सब-कुछ बता दूँगा।'' यह कह दण्डनायक बच्चों को लेकर चलने लगे। ___ अब इतनी लम्बी अवधि तक जिस बात को बेटियों से गुप्त रखा था, उसी को क्षण-भर में इस ढलती उम्र में खोल दिया जाए इससे चामध्ये झुंझला उठी, "पूरी घटना बताने पर कुछ अनहोनी हो जाए तो क्या होगा आपकी सम्मति से ही
192 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो