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चला। यदि वेदावती में प्रवाई न होता तो पूर्व-नियोजित रीति से आगं बढ़ जाता ।
और अब तक दोरसमुद्र ही पहुंच गया होता। वहाँ विलम्ब हो गया। उधर से प्राप्त समाचार और रास्ता बदल जाने के कारण उसे अपनी योजना भी बदल देनी पड़ी। उसने वेदावती के उत्तरी किनारे-किनारे डेढ़ कोस पश्चिम की तरफ़ सेना भेज दी। इस कारण वेषान्तर में मौजूद नेगः इस हेन' से अग मला हो गयी।
माचण की सेना पीछे हट गयी थी। उसने समय फ़िजूल गँवाना उचित समझा और मौका भी ऐसा धा। इसलिए पीछा करनेवाली शत्रु-सेना पर सीधा हमला न करके छिपकर तीर बरसाना शुरू कर दिया। इस समय शत्रु-सेना के नायक ने सोचा कि उसके साथ जो सेना मौजूद है, वह शत्रु पर धावा बोलने के लिए अपर्याप्त है। अतः वह थोड़े समय के बाद आकर मिलनेवाली पैदल-सेना और हस्ति-सेना की प्रतीक्षा करते हुए तटस्थ रहा। वह सेना भी आ गयी, परन्तु रसद नहीं आयी। रसद के न आने का कारण जानने के लिए जो दो सबार गये थे, वे भी भागे-भागे लोट आये। उन्होंने घबराते हुए जग्गदेव को खबर दी, "हमारी रसद को शत्रुओं ने रोक रखा है और भारी युद्ध हो रहा है।"
जग्गदेव अब इस दुविधा में पड़ गया कि रसद पाने के लिए सेना को पीछे चनाएँ चा शत्रु-सेना का पीछा करने के तिए आगे बढ़ाएँ। लेकिन उसके लिए सोचने बैंटने का समय नहीं था इसलिए उसने यही ठीक समझा कि शत्रु-सेना का पीछा किया जाए ताकि अग्निम रक्षक सेना भी रास्ते में साथ हो ले और अपनी रसद हमें मिल जाए।
इधर दण्डनाथ माचण की सेना जग्गदेव की सेना के बीच अटक गयी। इस स्थिति की जानकारी मिलते ही तुरन्त दोरसमुद्र को उन्होंने खबर भेज दी। वे लोग तब दोरसमुद्र से बहुत दूर पर नहीं थे। राजधानी की रक्षा के लिए किले के अन्दर पर्याप्त मात्रा में सेना को रखकर स्वयं महादण्डनायक मरियाने युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए। गंगराज ने उन्हें राजधानी ही में रोककर खुद सेना का नेतृत्व करने की सूचना दी। महाराज ने गंगराज के नेतृत्व का विरोध नहीं किया और खुद वे और छोटे अप्पाजी बिट्टिदेव सेना के साथ जाएँगे-इस बात की योषणा कर दी। वह जिज्ञासा करते बैठने का समय न था। तत्काल निर्णय हो जाना ज़रूरी था। महामातृश्री एचलदेवी से निवेदन कर उनका आशीवाद पाकर वे दोनों जग्गदेय का सामना करने के लिए निकल पड़े।
महाटण्डनायक को दोरसमुद्र में ही रहना पड़ा। पकती उन के कारण उन्हें राजधानी में ही रहने को कहा गया और इस विषय पर चर्चा करने के लिए मौका ही नहीं दिया। जब महाराज ने यह स्पष्ट कर दिया तो मरियाने ने कहा, "मेरे रहते महाराज खुद आगे बढ़े तो बदनामी मेरी होगी।"
190 :: पट्टमहादेवी शान्तला : 'भाग दो