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चिरायु हो'' की घोषणा से आसमान गूंज उठा। पहाराज बल्लाल ने हाथ जोड़कर वन्दन किया। जनता ने आनन्दित होकर तालियां बजायीं। फिर महाराज बेदिका पर स्थापित उच्च आसन पर विराजमान हुए।
प्रधान गंगराज ने समारम्भ को सुचारू रूप से सम्पन्न करने में सहयोग देनेवाली जनता का अभिनन्दन किया और सभा विसर्जित हुई। लोग उठे। सभा बिखर मची। महाराज और उनके भाई वैदिका से उतरे और राजमहल में प्रविष्ट हुए।
अधिकारी वर्ग के परिबारियों के लिए बैठने का स्थान अलग था। वहाँ प्रधानजी और अमात्यों का परिवार-दण्दनायिका, हेग्गड़ती माचिकच्चे, शान्तला
और दण्डनायक की पुत्रियाँ, सभी बैंटी थीं । वह स्थान इतना दूर न था कि महाराज की दृष्टि वहाँ तक न पड़ सके। एक बार उस तरफ़ महाराज बल्लाल ने देखा। शान्तला का खयाल था कि महाराज दुबारा इधर दृष्टि डालेंगे, मगर निराश हुई। बचारी पाला! शान्तला पद्मला के साथ ही बैठी थी। महाराज के दायें विट्टिदेव
और उदयादित्य बैंठे थे। उन्होंने कितनी ही बार इनकी ओर देखा, मुस्कराये। महाराज ने जब एक बार उधर देख पद्मला को बैठा जानकर फिर नहीं देखा तो शान्तला के हृदय में पद्मला के प्रति करुणा भर आयी। उसने मन-ही-मन कहा, ''इस तरह से इस प्रवृत्ति को बढ़ने नहीं देना चाहिए। बल्नाल और पद्मला की प्रेम की कुम्हलाची बेल में ताजगी लानी हो ये पुनः सा बड़े कड़े दिल के होते हैं। इनकार भी स्त्री सह लेगी। परन्तु लापरवाही और उदासीनता सा नहीं होगी। इस सम्बन्ध में कुछ स्पष्टता के साथ बिट्टिदेव से विचार-विमर्श कर लेना होगा। समय पाकर यह कहने का निर्णय कर लिया शान्तला ने। मगर पद्यला के प्रति शान्तला के मन में जो भावनाएं उत्पन्न हुई थीं, उन्हें उसने जाहिर नहीं होने दिया। पद्मला की मानसिक वेदना की गहराई से बह परिचित हो गयी थी। ऐसी हालत में उसके मन को और अधिक दुखाना वह नहीं चाहती थी। इसलिए पद्मला के मन को अब एकान्त चिन्तन करने देना उचित नहीं समझकर उसकी पीठ पर हाथ रखकर उसे देखते हुए पूछा, "आज के सैन्य जुलूस को जब देखा तब मुझे कैसा लगा, जानती हो?" ___ वह किसी धुन में अपने को भूली बैठी थी। शान्तला के सवाल को उसने समझा नहीं। इसलिए पूछा, "क्या कहा?"
"महाराज बड़ी स्फूर्ति और उत्साह से बोलते हैं। मैंने नहीं समझा था कि ये इतनी अच्छी तरह बोल सकते हैं।" शान्तला चोली।
“क्या बोले " पद्मला ने धीमी आवाज़ में पूछा। "तो आप स्वप्नलोक में रहीं अब तक? रहिए। आज स्वप्न, कल सत्य ।''
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो ': !69