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अब नहीं रही। युद्ध में अपनी शक्ति दिखाकर जब तक हम जीवित हैं तब तक किसी पोव्सल नारी को चण्डी चामुण्डी बनने की जरूरत नहीं इस बात को दुनिया के सामने साबित करने के लिए आपकी सम्पति है: है न?"
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"तुम्हारी बात में समझ गयी, छोटे अप्पाजी। इस बात पर तुम लोग विचार करो कि अब मैं एक निस्सहाव माँ हूँ ।"
"सिर्फ़ हम तीन ही तुम्हारे बच्चे नहीं हैं, माँ राजमाता और महामातृश्री हैं आप सारे पोप्सल साम्राज्य की प्रजा आपकी सन्तान है। हर एक का प्राण आपके लिए उतना ही मूल्यवान है। इसलिए स्वीकार कर आशीर्वाद दीजिए, माँ। हम सब साबित कर दिखाएँगे कि प्रभु की सन्तान उनकी साधना से भी ज़्यादा साध्य करने में समर्थ है।"
"इस बारे में मैं अब और कुछ नहीं कहूँगी। प्रधानजी, महादण्डनायक जी जैसा निर्णय करेंगे वैसा करो।" एचलदेवी ने कहा ।
इस विषय पर चर्चा हुई और यों निर्णय हुआ "महाराज पीछे रहकर आज्ञा देते रहें। उनकी उपस्थिति ही योद्धाओं के लिए उत्साहवर्धक है। हमारी सेना काफ़ी प्रबल और शक्तिशाली है। इसलिए शत्रुओं के पीछे हटने की भी सम्भावना है I यदि उनके राजधानी तक आगे बढ़कर आने का प्रसंग हो तब महाराज खुद नेतृत्व को अपने हाथ में ले सकते हैं। तब तक महादण्डनायक ही नेतृत्व करते रहें। "
इस निर्णय से न महाराज ही सन्तुष्ट हुए, न बिट्टिदेव ही उत्साह के मारे उनका खून खौल रहा था। अब उनके उत्साह पर पानी फिर गया । बल्लाल को तो एक तरह से गुस्सा भी आ गया। इस क्रोध के परिणामस्वरूप दोनों भाई जब तन्हाई में रहे तब बल्लाल ने बिट्टिटेय से कहा, "छोटे अप्पाजी, दण्डनायक की बेटी से मैंने विवाह नहीं किया इससे क्रोधित होकर उन्होंने हमारे उत्साह को भंग किया हैं ।"
"यदि उन्हें सचमुच क्रोध होता तो तुरन्त मान जाते और कह देते महाराज की ही सेना के आगे पहली कतार में विराजमान होना चाहिए। महाराज रहें या न रहें इससे उनका क्या मतलब होता । परन्तु उनकी दृष्टि में महाराज की रक्षा राष्ट्र की रक्षा हैं- ऐसा मेरा विचार है । "
“महादण्डनायक ने सिर्फ़ छोटे अप्पाजी से मन खोलकर कहा है। तुम्हें मालूम नहीं अप्पाजी, पहले एक बार महासन्निधान जब जीवित थे तब प्रभु का पट्टाभिषेक करना चाहते थे, उस समय उन्होंने अड़ंगा लगाया था। इसके व्यवहार से वे ऊब उठे थे और दोरसमुद्र से दूर ही रहे।"
"ओह, उसी समय न जब हम वेलापुरी गये और सन्निधान यहीं रहे महादण्डनायक की लड़की और सन्निधान में प्रेम का अंकुरार्पण भी तभी हुआ
174 : पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो