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रवाना होकर दोरसमुद्र पहुँच गये ।
चारों ओर से राजधानी में समाचार पहुँचने लगे। जोरों से युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। जगदेव की सेना कितनी हैं, वह किस रास्ते से आ रही है, उसकी शक्ति कितनी है आदि-आदि बातों का पता लगाने के लिए बहुत सूक्ष्म बुद्धिवाले गुप्तचरों को नियोजित किया गया। युद्ध के बारे में केवल उच्चस्तरीय अधिकारियों तक ही जानकारी रही, दोरसमुद्र की प्रजा को इसकी जानकारी नहीं रही और पर जीवन यथाविधि सुव्यवस्थित रूप से चलता रहा।
चेंगाल्वों की तरफ़ से युद्ध की कोई चहल-पहल होती नहीं दिखती थी। इस बात का तरी सेलने के बाद एक सीमित रक्षा दल को वहाँ रखकर शेष सेना के साथ माचण दण्डनाथ को दोरसमुद्र में बुलवा लिया गया और वहाँ की निगरानी के लिए सिंगिमय्या को यादवपुरी भेज दिया गया।
हिरि चलिकेनायक के स्वर्गवास हो जाने के कारण उनके बेटे छोटे चलिके नायक को उस समय वसुधारा के साथ सखरायपट्टण की देखरेख के लिए तैनात किया गया था। जग्गदेव की सेना यदि सखरायपट्टण से होकर आये तो वहीं उसका मुकाबला किया जा सके, इसलिए आवश्यक संख्या में सेना को तैयार रखे रहने का आदेश छोटे चलिके नायक को दिया गया। वास्तव में उस मार्ग से आना जग्गदेन के लिए उतना आसान न था। क्योंकि उन्हें पहाड़, जंगल, नदी-नाले पार कर आना पड़ता । परन्तु उस मार्ग से आने में एक सुविधा भी थीं। उस मार्ग में वस्तियाँ कम थीं। वहाँ किसी से सामना करने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती और उनके आगे के मार्ग का पता लगना भी कठिन था। सखरायपट्टण का ध्वंस कर देवनूर पर हमला करके कलसापुर या याबगल पहुँच जाए तो उसे दोरसमुद्र पर हमला करना आसान है अतः वहाँ भी शत्रु का सामना करने के लिए तैयार रहना जरूरी था । इस बात का निर्णय दोरसमुद्र में आयोजित युद्ध-मन्त्रणा सभा में किया गया था। इस सभा में प्रधान गंगराज, मानवेग्गड़े अमान्य, कुन्टमराय अमान्य, पीतिमव्या, सन्धिविग्रही नागदेव, महादण्डनायक भरिवाने, चिण्णम दण्डनाथ, मार्चण दण्डनाथ और हेगड़े मारसिंगव्या थे । मन्त्रणा सभा में शत्रुओं के हमले का सामना करना, उन्हें जड़-समेत नाश करना आदि के लिए क्या-क्या कार्य करने होंगे और किन-किन को कौन-कौन-सी जिम्मेदारी सौंपनी होगी आदि विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। महाराज बल्लाल और बिहिदेव दोनों चर्चा के समय मान बैठे सबको राय सुनते रहे। किस-किसकी कौन-कौन-सी जिम्मेदारी होगी इसका निर्णय किया गया। युद्ध सम्बन्धी सभी तैयारियों और उनके अमल
166 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो