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उसने प्रतीक्षा की। कान लगाये बैठी रही। यही सोच रही थी कि कहीं किसी और से टापों की आवाज सुनाई देगी। अहाते की ओर नजर दौड़ायी भी। पहरे के सिपाही फिर बैठे हुए-से दिखाई पड़े।
बेचारी दण्डनायिका आँखें खोलकर कान लगाये काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करती बैठी रही। एक-दो बार उल्लू के बोलने की आवाज सुन- पड़ी। चमगादड़ों ने पंख फड़फड़ाये । अब बैठे रहने का कोई प्रयोजन न समझकर वह अपने कमरे की ओर मुली। दरखाना बन्न का निता पवार: निट लेट गयी। उसके दिमाग में कई तरह के विचार चक्कर काट रहे थे। इर और आशा-प्रतीक्षा के होते हुए भी थकावट के कारण सब-कुछ थोड़ी देर के लिए भुलाकर शरीर आराम चाहता है। दण्डनायिका को भी ऐसे ही नींद लग गयी। कर लगी, कैसे लगी-यह कुछ नहीं मालूम हुआ। भाग्य की बात है कि कोई बुरा स्वप्न नहीं दिखाई दिया। प्रातः अमावस्या के दिन सूयोदय के बहुत समय बाद उसकी आँखें खुली। चारों ओर फैली रोशनी उसकी आँखों को चौधियों रही थी। वह घबराकर उठी और स्नानाघर मैं जाकर हाथ-मुँह धोया, भगवान को प्रणाम कर माथे पर रोरी लगायी और फिर देकब्वे को पुकारने लगी।
आवाज सुनकर "आयी" कहती हुए देकचं रसोई से बाहर निकली। "मालिक?" ''आ गये।" "जग रहे हैं? कब आये?''
''पहले मुर्गे की बाँग पर वेलापुरी से निकलकर सूर्योदय के कुछ पहले ही आ गये थे। आते ही स्नान आदि करके नाश्ता समाप्त कर राजमहल की ओर चले गये।" __ "ठीक है, तुम जाओ।" दण्डनायिका ने कह तो दिया पर अपने-आप पर काफ़ी दु:खी हुई। वह अपने मन में ही गनने लगी, ''हाँ, उस कंगाल से मनहस ताबीजों को लेकर ही वे घर आएँगे। जिसे न होने देना चाहती थी, वहीं होकर रहा, बही लगता है। ये हमारे नहीं' कहकर टाल देने की बुद्धिमत्ता दिखाएँ तो भाग्य की बात होगी।'' इस तरह सोच-सोचकर बेचैन होने लगी। वह चुप तो बैठी नहीं रह सकती थी। दैनिक कार्य तो होने ही चाहिए। काम और चिन्ता, दोनों साथ-साथ चलते रहे। बच्चों से तो कह दिया है कि तावीज हमारे नहीं, मगर जब बच्चों के सामने ही 'हमारे हैं' कहकर मुझे सौंप देंगे तो बड़ी भद होगी। क्या करना चाहिए? यह सब उसी वामाचारी से मदद लेने के कारण हुआ है। दुष्ट चोकी की बात नहीं सुनती तो उस वामाचारी के पास कभी फटकती भी नहीं। उस चोकी ने उस वामाचारी को इस वशीकरण के बारे में मनगढन्त किस्से सुनाकर
154:: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो