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"मुझ पर गुस्सा क्यों होते हैं? मैंने क्या किया?" 'मुखों जैसी बात न करो। अव भी क्यों झूठ का आश्रय लेती रहती हो?" "झूठ! मैंने आपसे झूट कब कहा?" "मुझसे नहीं। अपनी मामा यच्चियों से।'' "उनसे क्या झूठ कहा?" ''हेग्गड़े के घर में मिले तावीज 'हमारे नहीं' ऐसा क्यों कहा?"
"उन्हें इनके बारे में कुछ भी मालूम नहीं। इसलिए उन्हें मालूम कैसे होगा कि मैंने झूठ कहा?"
"मुझे क्या मालूम कि जो तुम्हारे मन में आता है, वह कह डालती हो। सुबह उठते ही उन्होंने मुझसे कहा। खाद जब हमारे घर की है तो हेग्गड़े का कहना ठीक है, मैंने कहा। तब उन्होंने वही कहा जो तुमने उनसे कहा था। 'हमारे नहीं' कहकर क्यों तुमने जिम्मेदारी अपने ऊपर ली? चुप रहना तो तुम जानती ही नहीं।'
"आपको इतनी समझ तो होनी चाहिए न? अगर हम यह मान लें कि वह हमारे घर के हैं तो हेग्गड़े चाहे जैसे उसका उपयोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कर सकेगा-यह आपने सोचा भी नहीं न"
"स्वीकार कर लें तो उससे उनकी स्वार्थसिद्धि में उपयोग भी क्या होगा?"
"जाकर वह समाचार सुनाएगा या हेग्गड़ती के जरिये महामातृश्री के पास समाचार पहुँचवा देगा। कहेगा-हमारी बुराई कराने के लिए इन ताकीजों को खाट के साथ मिलाकर दण्डनायक ने हमारे घर भिजवा दिया है। हम उनके हाथ से बच नहीं सकते। उनकी सारी चर्चाएँ इस तरह बुराई ही की होती हैं। यों नमक-मिर्च लगाकर कुछ कहकर हम पर क्रोध कराएगा।' ___ "अगर हम अस्वीकार कर देते तो जैसा तुम कहती हो वैसा होता। उन्हें सीधा महाराज को सौंपकर, सारा वृत्तान्त बता देना काफ़ी था। हमें विश्रान्ति की प्रार्थना करके सिन्दगेरे को जाना पड़ता। तुम्हारे भाई को यह सय मालूम ही था न? उन्हीं के सामने हेग्गड़ेजी ने तावीज़ों को मेरे हाथ में दिया। मैंने स्वीकार किया कि हमारे हैं और उन्हें ले आया। अब तुम अपनी बच्चियों से सच्ची बात कह दो। मेरे और तुम्हारे कहने में फर्क होगा तो हम दोनों पर बच्चे विश्वास खो बैठेंगे।" ___ "आप ही बच्चों को बता दीजिए कि मेरा कहना ही सही है। बात ख़त्म हो जाएगी।" ___ 'बात ख़त्म नहीं होगी, आगे बढ़ेगी। जब यह बात उठेगी, बच्चियाँ हेग्गड़े की बेटी से कहेंगी कि ये हमारे नहीं 1 या फिर हेग्गड़े की बेटी ही वह कहेगी कि
156 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो