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वह आतंकित हो जाए। इसलिए दण्डमायिका को थोड़ा सन्तोष हुआ था कि हेगड़े के स्थान परिवर्तन सं राजमहल में कोई खिम्मता नहीं है। फिर भी अन्दर-ही-अन्दर उसे यह दुःख तो रहा कि दर्शन करने का मौका नहीं मिला। उसे ऐसा लग रहा था कि उसके इस दुःख का कारण हेग्गड़े का ही परिवार है। वह इस आशा से प्रतीक्षा कर रही थी कि इसका प्रतिकार करने का मौका मिले बिना न रहेगा।
बाहुबली स्वामी के दर्शन के लिए जाने से एक दिन पूर्व चामले और उसकी बेटियों को राजमहल से बुलावा आया। जब चामब्वे ने यह सुना तो विश्वास ही नहीं हुआ। इस बुलावे का कारण न मालूम होने से वह सोच रही थी पता नहीं क्यों बुलाया गया है। अच्छा विचार भी आया, बुरे भी आये। जब मानसिक द्वन्द्र हो तब निर्मल और स्पष्ट विचार आ भी कैसे सकते हैं? एक तरफ़ उत्साह था। खुलाचे को लाभदायक समझकर यह उत्साहित हुई थी, तो साथ ही उसमें या भावना भी आयी कि इस समय युवरानी के मन में दबा पड़ा क्रोध ज्वालामुखी की तरह उबल पड़े तो क्या होगा? उस उत्साह में भी यह भय। वह कौंप उठी। इन्हीं भावनाओं को लेकर वह अपनी बेटियों के साथ राजमहल में गयी।
वहाँ उसे और उसकी बेटियों को अपेक्षा से भी अधिक स्वागत मिला। देखते ही युवरानी ने कहा, "इण्डनायिका को दुःख हुआ होगा दर्शन चाहने पर भी न मिलने के कारण । स्वामी के आकस्मिक निधन के कारण मैंने किसी सुमंगली या कन्या का दर्शन न करने का निर्णय किया था। इसाला आपकी दर्शनाभिलाषा को पूर्ण नहीं कर सकी थी। पता नहीं किसी पुराकृत पाप के कारण मेरा मांगल्या छिन गया और मेरी यह स्थिति हो गयी..." युवरानी का गला भर आया, सांस रुक गयी, आँसू निकल आये। गले की बात गले में ही रह गयीं। पल्ले से मुंह हैंक लिया।
चामब्वे को ऐसे मौके की बात कहना भी नहीं सुझा। चुप रही। बच्चियों की आँखें भर आयीं। उन्होंने आँसू पोंछ लिये। थोड़ा रुककर युवरानी ने कहा, "दण्डनायिका जी, यह दुःख ही ऐसा है कि कितना ही रोकने का प्रयत्न करें तद भी वह सकता नहीं। हम सदा भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि शत्रुओं को भी ऐसा दुःख न दे। वास्तव में मेरा वर्तमान जीवन मेरे लिए अवांछित है। प्रभु की अन्तिम आशा को सम्पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है-इसी भावना को लेकर जी रही हूँ। नहीं तो अब तक सल्लेखना व्रत लेकर मैं सुरलोक पहुँच गयी होती... हालाँकि यह सब नहीं बोलना चाहिए फिर भी दुःख ही ऐसा है, क्या करूं। मैंने कभी किसी की बुराई मनसा-वाचा-कर्मणा किसी तरह नहीं चाही। बुराई चाहनेवालों की भी मैंने बुराई नहीं चाही। तो भी मेरी ऐसी दशा क्यों हुई: जब मैं यह सोचती हूँ तब सदा दूसरों की बुराई चाहते ही रहनेवालों के लिए कौन-सा
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 12:5