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पश्चात् शायद उसका उधर ध्यान नहीं जाता है।"
"उस समय क्या हुआ था, मालूम है?''
'नहीं। प्रभु और वह दोनी इस सम्बन्ध में मौन रहे। मैंने भी जानने पर जोर नहीं दिया। मुझसे छिपाकर रखने जैसी कोई बात उनमें नहीं रही। यदि मैं न भी जानती तो उससे कोई हानि नहीं धी; यही सोचकर मैं चुप रही।"
"अच्छा उसे जान दें। पद्मला का विवाह अप्पाजी से होने के बारे में अवरानी को कोई एतराज है?"
"प्रभु की इस विषय में एक निश्चित सच थीं। उस लड़की के लिए उन्हें किसी भी तरह से व्यक्तिगत असमंजस नहीं था। फिर भी वह जिस वातावरण र पत्नी है उसे रखते हुए पानी के लोग नहीं मानते थे। वह वातावरण हानिकारक है-यह उनकी निश्चित धारणा थी। अप्पाजी अगर बड़ा बेटा न होते तो शायद वे बीच में न पड़ते।"
"युवरानी की भी यही राय है क्या?"
'अप्पाजी को अच्छा न लगे, ऐसा कोई भी बन्धन मेरी ओर से नहीं। इस विषय में में उसकी इच्छा के अनुसार ही चलूँगी। चाहे मुझे उचित लगे, न लगे। यदि यही उसका निश्चय है तो मैं उसके सुख को अपना सुख सपनेंगी।" __ मतलब यह कि अप्पाजी की शादी उसी की इच्छा के अनुसार होगी- यही नः"
"मेरो यह राय सिर्फ अप्पाजी के ही बारे में नहीं, सभी बच्चों के प्रति है।'' "अगर वे किसी गलत रास्ते पर जाएँ तो उन्हें समझाकर कुछ कहेंगी नहीं?"
"मनुष्य को मनुष्य बनकर जीना हो तो उसे किस तरह रहना चाहिए, किस तरह का परिवार मनुष्य को पुरुष बनकर जीने के लिए चाहिए? दाम्पत्य जीवन में समरस क्या है? इन सब विषयों को मैंने अच्छी तरह से समझाया है। उन्हें अच्छे गुरु भी मिले हैं। वास्तव में वह हमारे हाथ से निकला जा रहा था। यही गुरु थे जिन्होंने उसमें इतना परिवर्तन ला दिया। अब उसमें यौवन का अन्धा जोश नहीं, बल्कि एक विवेकपूर्ण संयम आया है। इसलिए इस सम्बन्ध में मैं अधिक सोचती नहीं हूँ। इसका यह मतलब नहीं कि मुझे ठीक न जंचने पर भी मैं चुप रहूँगी। उसे समझाऊँगी। परन्तु मेरी ही बात मानी जाए-ऐसा पेरा आग्रह नहीं।''
"तो अब आगे का कार्य?"
"मौन रहकर नजर रखने का। मारसिंगव्या के स्थानान्तरण के बारे में जिज्ञासावश सन्निधान के दर्शन की अभिलाषा की थी, मगर सन्निधान को ही इससे अपरिचित रखा गया है। सन्निधान को यहाँ तक आने का कष्ट नहीं करना चाहिए था। मैंने दर्शन के लिए उपयुक्त समय जानने हेतु खबर भिजवायी थी,
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो : 121