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मौन ही चली। स्वामी का दर्शन, पूजा-अर्चा यथाविधि सम्पन्न हुई। बाहुबली स्वामी के चरणाराधक ने शान्तला की तरफ़ मुड़कर कहा--"अम्माजी, बाहुबली स्वामी आपके स्तोत्र पाठ को सुनना चाहते हैं। सुने हुए कई साल बीत गये हैं। आपकी वह मधुर ध्वनि आज भी ताज़ा है मानो अभी सुनी हो। इसलिए स्वामी के प्रति श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप एक बार फिर तुम्हाग गायन हो जाए।"
शान्ला ने अपनी माँ की ओर से
"भगवान को सेवा समर्पित करने के लिए किसी की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। आज का यह भगवदर्शन जीवन में बहुत महत्त्व रखता है। प्रभु ने मुझे जो आज्ञा दी हैं, उसे दुहराकर भगवान के सामने फिर वचन लूंगी कि उस आज्ञा का पालन करूँ। हमारे बड़े राजकुमार की सारी प्रगति आज की पूजा-अर्चा में निहित है। पोयसल राजघराने की प्रगति के लिए तुम्हारे माता-पिता अत्यन्त निष्ठा के साथ सेवा करते रहे हैं, तुम भी उन्हीं की तरह निष्टा रखोगी-यह मेरा विश्वास है। आज की तुम्हारी सेवा, हमारे बड़े अप्पाजी की प्रगति के लिए बाहुबलि स्वामी को समर्पित होगी।" एचलदेवी ने कहा।
शान्तला सर्वांग-सौष्टय युक्त गोम्मटेश्चर के सम्मुख ध्यानमग्न थी। उसने आंख मूंदकर हाथ जोड़े और स्तुतिगान शुरू कर दिशा । उसी भूपाली राग में जैसा कि पहले सूर्योदय के समय प्रथम वार गाया था। आज ठीक दोपहर का समय था। प्रातःकाल में गाये जानेवाले उस राग को मध्याह्न समय में गाने पर उतना मनोहारी न होगा-यह शास्त्रज्ञ पण्डितों की राय है। लेकिन शान्तला ने सूरज की उस तपती दोपहरी में तथा उसी राग में ही गाया और शान्तिमय वातावरण उत्पन्न कर दिया। उस शान्तिमय मधुर नाद के साथ टण्डी-ठण्डी हवा के झोंके सबको आहादकर लग रहे थे।
इस वातावरण में रेबिमय्या अपने-आप को भूलकर भावसमाधि में सबसे अधिक खोया था। बल्लाल कुमार की भी यही दशा थी, वह भी उसी भावसमाधि में था। इसका यह मतलब नहीं कि बाकी लोगों को उतना आनन्द नहीं मिला। उन्हें भी मिला। एचलदेवी को बल्लाल की यह स्थिति देखकर बहुत सन्तोष हुआ था। मन-ही-मन उन्होंने शान्तला को हजारों बार असीसा। वास्तव में उस दिन शान्तला ने तादात्म्य भाव से गान किया था। मन्द स्वरों में उसने जो स्वर-बिन्यास किया था, वह ऐसा लग रहा था कि सम्पूर्ण हृदय से प्रार्थना भगवान के सामने समर्पित की गयी है। ऐसा लग रहा था कि उसके मधुर कण्ठ से निकले नाद की झंकृति ने बाहुबलि के हृदयकमल को विकसित कर दिया हो
और उसने किसी भ्रमर की तरह उस कमल के अमृत समान रस का पान कर लिया हो वहाँ का सारा वातावरण नादमय हो गया था।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 133