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वापस जाने के बारे में सोचना होगा।" "पता नहीं, माँ की क्या राय हैं?" राजकुमार बल्लाल ने कहा।
ा नहाँ रहने में में असहनीय दुःख होता है, तो उन्हें कितना दुःख हो सकता है, इसकी कल्पना कर सकते हैं। फिर भी उन्हें व्यावहारिक दृष्टि से सीधा ले जाना ही उचित है, इसलिए उन्हें ढाढस देकर समझा-बुझाकर ले जाना ही होगा।" ___माँ से यह बात को भी कैसे? मेरे लिए तो बहुत मुश्किल है।' बल्लाल विहल हो उठा।
"हम स्वयं कहेंगे। हम उसके पास चलते हैं, अभी ही बात करनी होगी। आज शाम तक में अपने निर्णय की सूचना राजधानी भेज देनी है।"
'उदय! तुम जाकर माँ को बता दो कि महासन्निधान आ रहे हैं। हम अभी घोड़ी देर में पहुंच जाएंगे।' बल्लाल ने छोटे भैया से कहा । वह आज्ञा शिरोधार्य कर तत्काल चला गया। ___ महासन्निधान के आगमन की सूचना पाते ही युवरानी एचलदेवी सम्मानपूर्वक प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही देर में गोंका ने आकर निवेदन किया कि महासन्निधान पधार रहे हैं। युवरानी उठकर अन्तःपुर के द्वार तक चली आयीं। महाराज बिनयादित्य राजकुमार बल्लाल और बिट्टिदेव के साथ वहाँ आ पहुँचे तो एचलदेवी ने महाराज के पैर छुए और आँखों से लगाया। और फिर किसी
औपचारिकता के बिना महाराज के बैंठते ही सब बैठ गये। ___महाराज ने बात आरम्भ की, ''इस समय हम पेचीदा राजनीतिक प्रस्ताव लेकर आये हैं। पेचीदा तो है, पर कहे विना काम नहीं चलेगा। युवराज जब कभी पानसिक तनाव का अनुभव करते थे तो स्वस्थ होने के लिए वेलापुरी आया करते थे। तब युवरानी भी साथ होती थीं। यह सब मालूम ही है। इस बार भी एक बड़ी व्यथा हलकी करने के लिए यहाँ आये थे। नक्षत्र-दोष की बात पुरोहितों में कही बह कोई ज़बरदस्त कारण नहीं था। हम अगर चाहते तो लोकरूढ़ि के अनुसार कुछ व्यवस्था करके दोरसमुद्र में ही रहा जा सकता था। परन्तु वहाँ रहने से हर क्षण युवराज का स्मरण आता रहता । होना कुछ था, हुआ कुछ और ही, इस दुर्घटना की याद क्षण-क्षण मानसिक व्यथा उत्पन्न करती रहती। इसलिए हमने घटना स्थल से दूर रहने की सोची थी। हमारा विचार था कि इससे भीतर का दर्द कुछ कम होगा, इस दुरन्त को कुछ हद तक 'मूलने में मदद मिलेगी। वास्तव में प्रघानजी
और दण्डनायक जी इस स्थानान्तर को पसन्द नहीं करते थे। मेरे स्वास्थ्य के अच्छा न होने का बहाना करके भी हमें रोकना चाहते थे। मगर हमें मन-ही-मन वहाँ की राजनीतिक स्थिति, उस समय कुछ कलुषित हुई-सी लग रही थी। इसे
116 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो