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निर्मल होने देना आवश्यक था। शायद हमारी गैरहाजिरी इसमें सहायक हो सकेगी-यह सोचकर ही हम यहाँ चले आये। अब स्थिति कुछ सुधरती प्रतीत होती है। यह तो सर्वविदित है कि एक-न-एक दिन मृत्यु आतो है। परन्तु उस मृत्यु का यों अचानक आ जाना हमें आघात पहुँचाता है, हम शोकाकुल हो उठते हैं। यह शोक भी अनिवार्य है। अब वह कुछ-कुछ शान्त होने को है; ऐसी हालत में उसे फिर से दोरसमुद्र तक साथ ले जाएँ तो यह डर है कि उसका पुनरावर्तन हो जाय। ऐसा होना सहज ही है। लेकिन अब प्रधानजी ने निवेदन भेजा है कि उचित समय आ गया है, सब लौटें और राजमहल को फिर से शोभा प्रदान करें।" फिर एक क्षण मौन रहकर बोले, "हमारे सामने अब अनेक कठिन समस्याएं हैं। घुवराज जिन कार्यों का निर्वहण करते थे, उनसे भी कहीं अधिक उत्तरदायित्वों का निरीक्षण अब इन्हें करना होगा। राज्य को कहीं अधिक सुदृढ़ और विस्तृत करना होगा और इसके लिए राजकुमारों का राजधानी में रहना अत्यन्त आवश्यक है। व्यावहारिक दृष्टि से वही उचित है। इनके भावी श्रेय का विकास भी इसी बात पर निर्भर हैं। ऐसी स्थिति में युवरानी को अपना दुःख सहकर भी कुमारों के हित को ध्यान में रखकर राजधानी में जाकर रहना ही अच्छा है। हम जानते हैं यह आसान नहीं, फिर भी .. म रहा है। हमारी युवरानी में औचित्यज्ञान किस स्तर का है, इसे युवराज ने हमसे अनेक बार कहा और प्रशंसा भी की है। इसीलिए हमने स्वयं आकर सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी हैं, वैसे हम किसी भी बात पर जोर नहीं डालेंगे।" विनयादित्य ने बड़े स्नेह भरे शब्दों में अपनी मनःस्थिति चुवरानी के सामने रख दी।
मृत्युशैया पर पड़े हुए उन्होंने मुझसे एक बात कही थी। मैंने वचन दिया हैं कि उसका पालन करूँगी। अतः राजकुमारों का हित मुझे ही सबसे मुख्य है। उसके लिए सबकुछ त्याग करने के लिए तैयार हूँ। उनके विछोह के इस वन-आघात को भी सह लूंगी। सब तरह के कष्ट झेलकर जीना ही नारी की शक्ति की सच्ची परीक्षा है। सन्निधान की आज्ञा शिरोधार्य है। अपने स्वामी से मैंने अनुसरण करना ही सीखा है। मुझे उन्होंने एक बात और बतायी थी--सन्निधान को बताने के लिए अब तक मौका नहीं मिला। अब यता देना मेरा कर्तव्य हैं। वह भी मृत्यु-समय ही उन्होंने कहा था, "देखो युवरानी, सन्निधान तुम्हारे विषय में सदा एक बात कहते रहते हैं। हमारे लिए युवरानी बहू ही नहीं, बेटी भी हैं। अब इसके साथ तुम्हें उनका पुत्र भी बनना होगा। पूर्ण रूप से सजग रहकर तुम्हें उनको संभालते रहना होगा, वृद्ध जो ठहरे।'-उनकी इस आज्ञा का पालन करके उनकी आत्मा को शान्ति पहुँचाना मेरा परम कर्तव्य है। प्राणपण से उनकी इस आज्ञा का पालन करूंगी।"
पाष्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 117