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"मुझे अपनी सौगन्ध, मुझे यह पता नहीं लगा कि मेरे पैर से रक्त बह रहा है। बल्कि मैं तो इस बात से चिन्तित थी कि आरती का जल छलक गया। आरती की थाली रखने के लिए दूसरी जगह नहीं दिखी, इसलिए उस मन्दिर में रखकर साड़ी बदलने दूसरे कमरे में चली गयी थी। वहाँ पता चला कि मेरे पैर से खून वह रहा है। पहले से यदि मालूम हुआ होता तो शायद मैं ऐसा नहीं करती। अनजाने में जो कुछ ग़लती हो गयी उसके लिए क्षमा नहीं किया जाता ? "
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"क्षमा...तुम्हें वह कई बार मिल चुकी है। तुम अब उसके लायक़ नहीं हो तुम्हारे इस दुरभिमान को नष्ट करना ही होगा, और कोई चारा नहीं। यह बात कहाँ से कहाँ पहुँचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। ध्यान रखो, आइन्दा अब तुम्हारी बाल सुनकर कोई काम नहीं करूँगा।"
"ठीक है, मुझसे बात न कीजिए, मेरी बाल न मानिए मेरी बेटियों के लिए भी कुछ न करेंगे?"
"वह सब भगवान की इच्छा। मैं ख़ुद इसमें आगे नहीं आऊंगा, इसे अच्छी तरह समझ लो । तुमसे चचां करना ही समय का दुरुपयोग है। एकदम फिड़त । मुझे और भी काम हैं।" कहते हुए कपड़ा पहनकर दण्डनायक बाहर निकल गये । "मालिक के ही हाथ का सहारा नहीं तो आगे क्या? हे भगवान...!” वह विकल हो उठी। एकाएक उसे लगा जैसे सब-के-सब उसके विरोधी बन बैठे हैं। "आखिर इसके पीछे कोई कारण भी होगा ! मेरे विरुद्ध जरूर कोई भड़का रहा है इस सबका मूल दोरसमुद्र के उत्तर-पूर्व के कोने में है। युवरानी और अन्य लोगों को वेलापुरी जाने की इन्हीं लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए तजबीज कर रखी हैं। बुरा नक्षत्र तो एक बहाना भर है। कितने लोग बुरे नक्षत्र में नहीं मरते ! सव गाँव छोड़कर जाते हैं? अरे, जिस स्थान पर मरे, उस स्थान को बन्द कर दें, उससे बाक़ी घर का सम्पर्क न हो, ऐसी व्यवस्था करते हैं। या फिर तात्कालिक रूप से पास ही किसी दूसरे घर में रहेंगे, गाँव-शहर ही को छोड़कर नहीं जाएँगे । जब महाराज का ही स्वास्थ्य ठीक नहीं हैं तब वह परदेश गमन क्यों भैया ने कहा भी था, माने ही नहीं। न मानें तो जाने दें, खुद साथ चलने के लिए तैयार होने को कहा तो महाराज ने मना कर दिया। मेरे स्वामी को तो वहाँ जाना ही मना है। भाई और मेरे स्वामी दोरसमुद्र के लिए बँधे हैं। बाकी लोग उनके पास रहकर जब चाहें तब अपना स्वार्थ साधने के लिए तजबीज कर ले सकते हैं। इसके लिए भी सोचकर अब तक युक्ति निकाल ली होगी। अभी साथ जाएँगे तो लोग ग़लत समझेंगे, इसलिए यहीं रहने की व्यवस्था कर ली है। महीने दो महीने में वेलापुरी जाएँगे ही, स्थान- परिवर्तन के बहाने से तब मेरी बेटियों की भावी स्थिति की इतिश्री हो ही जाएगी। तब मेरी आशा आकाश कुसुम बनकर रह जाएगी। जब
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 113