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भाई के मुँह से ये बातें सुनकर दण्डनायिका बामन्ये काँप उठी। वह मन-ही-मन कह रही थी : ...युवराज की मृत्यु का कारण, मैं? नहीं, नहीं। मैं अपनी बेटी को उनकी बहू बनाकर उन्हें सौंपना चाहती थी। क्या मुझे ऐसा करना चाहिए था? हे भगवान, यह सब कैसे सहन होगा! हे भगवान...” सिर झुकाये ही वहाँ से निकलकर वह जल्दी जल्दी अपने घर चन्नी आयो।
अपने और अपने भाई के बीच की सारी वार्ता उसने अपने पतिदेव को सुनायी । शायद उनसे कुछ सहानुभूति मिले। पर, वह भी गुरसे से लाल होकर उस पर पिल पड़े। बोले, ''इतना होने के बाद भी तुम्हें अङ्गत नहीं आयी। अपनी हस्ती हैसियत के योग्य बरतने के लिए गार तार कहने के बावज़द तमने का नहीं सीखा। ऐसी बातों में, जिनसे लड़ें कोई मतलब नहीं, हस्तक्षेप क्यों करने गयी जो चोट तुम्हें लगी वह काफ़ी नहीं है। चाहे जो भी हो तुमको अक्ल नहीं आने की। तुम्हारे कारण कई बार हमें शर्मिन्दा होकर सिर झुकाना पड़ा है। तुम्हारे भाई ने जो कहा कि तुमने मन्दिर को अपवित्र किया, क्या वह सही नहीं है। दण्डनायक कुछ कड़ककर बोले।
"परिस्थिति को न समडाकर सब लोग अगर मुझ पर इस तरह टूट पड़ें तो मैं क्या करूं: सच हैं. आरती के जल को फेंकने गयी और टकरा गयी। युवराज भी तो टकरायें। पेशा टक्कर खाना अपवित्र और अमंगल हुआ और उनका टकराना...अमंगल नहीं?'' यात तो कुछ कड़वी थी, मगर आँखें भर आयौं।
"कहीं-से-कहाँ टलाँग मारी! पहले तुम टकरायीं। वह शुम कार्य के आरम्भ में अपशकुन नहीं तो और क्या है? मैं पहले से ही कहता रहा कि किसी तरह के पचड़े में मत पड़ो। परन्तु तुमने मेरी बात नहीं मानी। पाँच सुमंगलियों में एक तुम्हारा बनना क्या जरूरी था' पाँच में एक बन गयी तो कौन-सा महान कार्य कर लिया? न बनती तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता? युवराज कुमारी को छोड़कर अपना नाम सझाने ज्यां गयीं? इसके लिए मौका ही क्यों दिया?''
__ “उस हेग्गड़ती को ती पाँच सुमंगलियों में बना लिया, फिर मैं यदि वंचित रह जाती तो मेरा कितना अपमान होता?"
"अब तुम्हें बहत सम्मान मिल गया नः पवित्र-अपवित्र के ज्ञान से शुन्च तुम निरी एक मूर्ख स्त्री हो, महास्वाथीं। तम्हारा यह स्वार्थ ही तुम्हारी बेटियों की प्रगति में सबसे बड़ा काँटा हैं। अब कौन-सा मुंह लेकर अपनी कन्या की बात कहने युवरानी जी के पास जाओगो: सारा सत्यानाश हो गया। खून बहते जख्मी पैर को होती तुम मन्दिर में गयी धीं, इसे युवरानी जी के अन्तःपुर का नौकर गोंका ने और रेविमच्या ने भी देखा है। क्या तुम समझती हो कि ह समाचार युवरानी जी को मालूम नहीं: उस हालत में देवालय में गयी ही क्यों"
112 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो