________________
साल भर रह जाएँ। इस साल हमें अनेक धार्मिक कार्य करने होंगे। यगची नदी - के पवित्र प्रदेश की हम इन कार्यों के लिए उपयुक्त स्थान मानते हैं। फिर इस आघात से सँभलने के लिए भी हमें काफी समय लग जाएगा। यहाँ तो वह सब सम्भव नहीं लगता ।" कहते हुए वे चुप हो गये ।
" सन्निधान का स्वास्थ्य भी दिनोंदिन गिरता जा रहा है। इसलिए..." बीच में ही विनयादित्य बोले, "प्रधानजी, मुझे आप तो... तो मेरी आयु समय से पहले ही कहीं पूरी न हो जाय ही इच्छा है तो कहिए, हम वही करेंगे।"
"नहीं प्रभो, आप जैसा सोचें!" कहकर प्रधान गंगराज ने फिर बात आगे नहीं बढ़ायी । इस तरह के अकल्पित आघात को कैसे सह सकेंगे? सच तो यह है कि खुद गंगराज ही इस आघात को नहीं सह सके थे। फिर पुत्र-शोक के इस भारी आघात की भला महाराज कैसे सह सकेंगे। इसलिए इस अवसर पर कोई सलाह न देना ही उन्होंने उचित समझा। वास्तव में उनके अन्तरंग में कुछ और ही बात चुभती रही, पर महाराज से कहने का उन्हें साहस नहीं हुआ। अपनी यह बात वह मरियाने से भी नहीं कह सके।
यहीं रोक रखेंगे आपकी यदि ऐसी
एरेवंग प्रभु का निधन हुए तीन दिन गुजर गये, तो हेगड़े मारसिंगथ्था ने चालुक्य चक्रवर्ती के उस पत्र की बात दण्डनायक को बतायी। इसे हेग्गड़े सिंगमच्या से भी गुप्त रखने के लिए कह रखा था। सिगिमय्या से इतना भर कहा, "अब जाकर चालुक्य प्रतिनिधि को वहाँ का अधिकार सौंपकर अपने परिवार और निर्वाहक वर्ग से कुछ न कह सबको साथ लेकर यहाँ आ जाओ।" यह प्रधानजी की आज्ञा थी जिसे हेगड़े ने सुनाया। उसे बात तो मालूम ही थी अतः इसे गुप्त ही रखने के खयाल से किसी से कहे बिना ही वह चल पड़ा। तात्कालिक रूप से किसी तरह की ग़लतफ़हमी न हो, इसलिए तभी का तभी यह निर्णय कर लिया
गया था।
सम्पूर्ण राजधानी शोकमग्न थी ऐसी हालत में यहाँ रहकर इसमें भागी न बनकर अचानक ही अपने मामा के चले जाने से शान्तला बहुत चकित हुई। वह - अपने मन में यह बात छिपाकर नहीं रख सकी। उसने मामा के चले जाने के औचित्य पर पिताजी से सवाल किया।
"राजनीतिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही है, अम्माजी उसे अब जाना ही चाहिए था। मुझे यह मालूम है, परन्तु इस सम्बन्ध में अभी किसी को कुछ नहीं पूछना चाहिए। फ़िलहाल मैं नहीं बताऊँगा। बता भी नहीं सकता ।" पिता के कहने पर वह चुप तो हो रही लेकिन उसके दिमाग में भीतर ही भीतर यह राजनीतिक समस्या कहीं और अधिक प्रबल बनकर घुमड़ती रही।
110 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग टो