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राजपरिवार के सभी लोगों को दोरसमुद्र छोड़कर जाने के पश्चात् समय के बीतने के साथ-साथ राजधानी प्रकृतिस्थ होने लगी। प्रभु एरेयंग ने जहाँ पार्थिव शरीर छोड़ा था उस प्रकोष्ट को बन्द कर दिया गया। राजमहल के शेष भागों में निरन्तर ज्योति जलती रहे ऐसी व्यवस्था की गयी थी। बस ज्योति की ज्वाला ही तो थी वहीं, वह प्रखर ज्वाला अब वहाँ कहाँ थी? हाँ; वहाँ के आसन आदि फ़र्श
और दीवार रोज की भाँति नौकर-चाकर साफ़ करते, रोज की भाँति वे सब साफ-सुधरे रखे जाते । खुद प्रधानजी दिन में कम-से-कम एक बार आकर मुआइना भी कर जाते।
एक दिन दण्डनायिका ने अपने भाई प्रधान गंगराज के यहाँ जाकर कहा, "भैया, आपको ही क्यों राजमहल में जाना पड़ता है? किसी दूसरे को क्यों नहीं भेज दिया करते? बुरे नक्षत्र के कारण जब वह स्थान खाली कर दिया गया तो फिर आपका भी वहाँ जाना ठीक नहीं जचता। कुछ का कुछ हो जाय तो..."
"चामू, यह शरीर पोय्सल राजवंश की निधि है। उसके लिए कार्य निर्वहण करते हुए प्राण विसर्जन करना पुण्य की बात है, ऐसा मैं मानता हूँ। कितना पवित्र घा प्रभु का हृदय! उनके जब प्राण पखेरू उड़े तो आकाश में भले ही कोई बुरा नक्षत्र रहा हो लेकिन उनकी आत्मा...वह कभी किसी का अहित नहीं चाहेगी। जब वे जीवित रहे तब किसी ने यदि उनकी बुराई की हो तो ऐसे लोग ही वहाँ प्रवेश करने से डरेंगे। मुझ जैसे को भला किस बात का भय? अब आगे कभी बुरे नक्षत्र की बात तुम्हारे मुँह से निकले तो मेरे और तुम्हारे बीच का सम्बन्ध ही टूट जाएगा, समझी! जब जो मुँह आया सो बक देती हो।" प्रधान गंगराज ने साफ़-साफ़ जता दिया। ___ भैया, क्या मैं नहीं समझती कि तुम्हें असहनीय दुःख है! ऐसे समय कोई तुमसे कुछ कहे तो तुम्हें गुस्सा आना सहज है। पर मैंने ऐसी कौन-सी ग़लत बात कहीं? दुनिया जिसे स्वीकार कर चलती हैं वहीं बात तो भैया, मैंने तुमसे कही, वह भी तुमसे ममत्व...तुमसे स्नेह-प्रेम के कारण।" दण्डनायिका ने मरहम लगानी चाही।
"छेड़ो मत! मुझे मालूम है तुम्हारा प्रेम-स्नेह । तम्हें वास्तव में राजपरिवार के प्रति ममत्व होता और यदि तुम युवराज का हित और कुशल चाहनेवाली होती तो तुम अपने अमंगलकारी पैर के रक्त से राजमहल के पवित्र देवालय को अपवित्र नहीं करती। वही सब प्रभु की मृत्यु का कारण बना कहूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा? हट जाओ, मुझसे बात मत करो! इस समय मैं अपने वश में नहीं हूँ। मेरा मन बहुत उद्वेलित है।'' कहकर उसके जाने की प्रतीक्षा किये बिना ही प्रधानजी वहाँ से चले गये।
पमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 1]]