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"जहाँ तक मुझे स्मरण है, वे ही इधर आए थे सो शिक्षण देने के लिए आपने उन्हें ठहरा लिया ।"
"फिर भी वे हैं तो उत्कल के ही यह सच है कि वे ठहर गये सो बुलवा लेने जैसा ही हुआ न ।”
"अम्माजी उनका दर्शन करना चाहती थी । वास्तव में हम आप सबकी बलिपुर में प्रतीक्षा करते रहे। आप लोगों का सत्कार करने का सौभाग्य ही नहीं जुट सका और अब तो हम ही यहाँ चले आये ।"
"अब तो उनके पढ़ाने के लिए आने का समय भी हो गया है । हमारे नाश्ता-पानी होने तक यदि वे नहीं आते हैं तो किसी को भेजकर उन्हें बुलवा लूँगी।"
"तो वे क्या कहीं अन्यत्र निवास करते हैं?"
" और नहीं तो क्या। यह कोई धर्मशाला थोड़े ही है, हेग्गड़ती जी ।" "आपकी बेटियाँ कहाँ हैं? कोई भी दिखाई नहीं पड़ती ?"
“अभी वो अभ्यास में लगी होंगी। नाश्ते के समय बुलाऊँगी। अरे टडिगा, जाओ और नाट्याचार्य जैसे ही आएँ, उन्हें यहाँ बुला लाओ।"
शान्तला की इच्छा हुई कि पूछे मैं वहाँ आकर बैठ सकती हूँ? लेकिन पूछा नहीं 1
कुछेक क्षणों के लिए मौन छा गया।
"गड़ती जी, आपको निवास पसन्द आया? अच्छा है न?" दण्डनायिका ने यों ही पूछ लिया ।
"अच्छा है। दusनायिका जी, वास्तव में इतना बड़ा निवास यहाँ हमें मिलेगा- इसकी उम्मीद नहीं थीं। वहीं अहाते में तीन-चार छोटे और भी निवास हैं। इससे और अधिक सहूलियत हो गयी ।"
"वैसे राजमहल के पास ही एक निवास था। मालिक चाहते थे कि वहीं ठहराएँ। मैंने उनसे कहा कि वह उनके लिए पर्याप्त नहीं होगा। वे सिर्फ़ पति-पत्नी और बेटी ही नहीं आएँगे। उस समय जब बड़े राजकुमार के उपनयन के सन्दर्भ में आये थे तो अपने साथ सभी गुरुजनों को भी लेते आये थे। अब भी वे सब साथ आएंगे ही, इसलिए उनको सब तरह की सुविधाएँ नहीं रहेंगी। इसी कारण इस मकान को देने के लिए कहा था। सब ठीक है फिर भी लगता है एक बात की सुविधा वहाँ नहीं है ।"
“ऐसी कोई असुविधा तो नहीं है !"
"राजमहल से दूर बहुत है।"
"इसमें क्या असुविधा है? राजमहल में काम तो मालिक को करना है । वे
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो 89