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से हंसमुख दिखने लगी थीं। उनके कार्यों में अब पहले की तरह रुचि और स्फूर्ति दिखाई देने लगी थी। राजमहल में जो एक तरह का गम्भीर वातावरण बना हुआ था, वह समाप्त हो गया था। वहाँ एक बार फिर चहल-पहल शुरू हो गयी थी। सम्पूर्ण राजमहल फिर से एक नयी उमंग से भर उठा था। ___ महाराजा अब तक तो एक तरह से राजकाज से विरक्त हो गये थे। राजकाज में जैसे उनका कोई दखल ही नहीं था। लेकिन अब उन्होंने दृढ़ संकल्प कर लिया था और घोषणा कर दी थी--''इस साल युबराज की वर्धन्ती के दिन उनका महाभिषेक करने का हमने निश्चय कर लिया है। हम अब किसी की सलाह को नहीं मानेगे। खुद वुवराज ही क्यों न मना करें, उनको हम सिंहासन पर बिठाकर ही चैन लेंगे। जो भी इसका विरोध करेगा उसे राज्य का विरोधी मानकर दण्डित किया जाएगा। वास्तव में अव ये ही महाराज हैं। पहले ही हमने दोरसमुद्र को राजधानी बनाकर, वहाँ के महामण्डलेश्वर की हैसियत से, एरेयंग प्रभु ही राज्यभार सँभाल रहे हैं, इस वात का शिलालेख स्थापित करने की सूचना सर्वत्र भेजी थी और इस प्रकार के शिलालेख जहाँ-तहाँ स्थापित भी हा हैं। यह सब देखने के वाद, उन्होंने यह आदेश प्रसारित किया था कि फ़िलहाल उनका नाम सूचित नहीं होना वाहिए । यह युवराज के रूप में ही हमारे नाम से सारे राजकाज का विधिवत् संचालन करते रहेंगे, यह भी हमें मालूम है। किन्तु तब हम किसी का मन न दुख इसलिए चुप रहे। मगर किसी ने हमारे आभप्राय को समझने की शश नहीं की इस बात का हमें अत्यन्त खेद है। ठीक है इसे हपारे मन की दुर्बलता ही कहा जाय। अब इस वर्ष हमारे युवराज की वर्धन्ती के अवसर पर उनको महाराजा घोषित कर पमयभिपेक करेंगे और राजकुमार बल्नाल को युवराज पद पर अभिषिक्त करेंगे।" इस तरह के निश्चय से राजमहल में जैसे एक नया उत्साह फूट पड़ा था।
प्रधान गंगराज और मरियाने दण्डनायक को यह अच्छी तरह मालूम था कि इस सारी गड़बड़ी का कारण उन्हीं की एक साधारण-सी ग़लती है। अब उन्होंने महाराज के इस आदेश को सभ्यूर्ण रूप से मानकर पट्टाभिषेक महोत्सव को बड़ी सजधज के साथ अपूर्व ढंग से सम्पन्न करने की योजना तैयार की थी। इस सुखद समारम्भ की प्रतीक्षा में सब अपने-अपने वैयक्तिक विचारों को भूलकर ध्यान लगाये बैठे थे। पूरे दोरसमुद्र में मानो कहीं कोई मनोमालिन्य ही नहीं था। पूरी राजधानी एक परिवार-सी बन गयी थी। ऊंच-नीच, मालिक-नौकर, अधिकारी-कर्मचारी आदि इस तरह के विचारों पर किसी का ध्यान ही नहीं रहा।
दण्डनायिका की आशाएँ मन-ही-मन फिर से अंगड़ाई लेने लगी। पहले इस पट्टाभिषेक को रोकने का कारण वह स्वयं बनी थी, उसे इसका पूरा आभास हो
५4 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो