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" दाक्षिणात्य पद्धति में समाधान, तृप्ति, सन्तोषपूर्ण नैसर्गिकता और धार्मिकता छलकती है । उसका लक्ष्य दैहिक आकर्षण नहीं। भरतमुनि प्रणीत नाट्य सूत्रों के आधार पर घोड़ा बहुत शास्त्रीय अंश समन्त्रित किया गया है । अस्तु हमारा औत्तरेय विधान भी पहले धार्मिक पृष्ठभूमि को लेकर निरूपित हुआ है। हमारे लिए भी भरतमुनि का वही शास्त्र आधार हैं । उसका उपयोग करके पुराण और इतिहास को नृत्य का रूप देकर दोनों का समन्वय किया गया है। इसका लक्ष्य मुख्यतः पुराणों - इतिहासों की कथाएँ जनता को समझाना है। इसलिए उस तरह की कवाओं को सुनानेवाले कक्षकों का मार्ग ही हमारे लिए मूलभूत आधार बन गया है । अलेक्जेण्डर (सिकन्दर ) के समय से हमारे इस पवित्र देश पर यूरोपीय, मोहम्मदीय, चीनी, ब्रह्मदेशीय आदि विदेशियों के हमले होते रहने के कारण उनकी नाट्य पद्धतियों के भी कुछ अंश उसमें आकर मिल गये हैं। ऐसा होने से वह कुछ खिचड़ी-सी बन गयी है."
"इस औत्तरेय पद्धति ने इन सभी से कुछ-न-कुछ नवीनता लेकर स्वयं को अलंकृत किया है। इसे खिचड़ी या मिलावट न कहकर यों कहना उपयुक्त न होगा?" शान्तला ने पूछा ।
"जो भी कहो, एक ही बात है ।" महापात्र बोले ।
"क्या आपकी दृष्टि में वह ठीक नहीं है?" शान्तला ने फिर पूछा।
"मैंने कब कहा कि यह ठीक नहीं हैं?" सदा सर्वदा हम अच्छे ही को ग्रहण करते हैं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। दक्षिण में नृत्य का उपयोग मन्दिरों में होता है । सामान्यतः वह प्रजारंजन के लिए नहीं होता। उत्तर में यह आदर्श कुछ भिन्न तरह का बन गया है। अब वह एक लौकिक कला बनकर लोगों के आकर्षण की चीज बन गयी है। इसलिए दैहिक आकर्षण भी औत्तरेय नृत्य का एक अंग-सा बन गया है।"
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"वह कथकों की रीति कैसी होती है-इसे प्रत्यक्ष देखे विना अन्तर कहीं है, यह बात नहीं समझ पाऊँगी।"
"चाहो तो तुम्हें सिखा दूँगा।" महापात्र ने तुरन्त जवाब दिया ।
"अभी जो सीख रही हूँ वह भी पूरा नहीं हो सका है। ऐसी हालत में.. फिर भी आपकी उस पद्धति को मैं आँखों देखना चाहती हूँ। तीनों को एक ही पद्धति का नृत्य सिखाने के बदले किसी एक को उस औत्तरेय नाट्य पद्धति के अनुसार सिखाते तो अच्छा होता और देखने को आसानी से मिल भी जाता ।"
"अगर मैं यह कहता कि उसे सिखाऊँगा तो मुझे यहाँ स्थान ही नहीं मिलता। दण्डनायिका जी भरतनाट्य को ही अधिक पसन्द करती हैं। महापात्र ने कहा ।
92 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो