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घोड़े पर आया-जाया करेंगे। हम चाहे कहीं रह हमारे लिए वहाँ राजमहल में भला । काम ही क्या है?' हेग्गड़ती ने कहा।
“सो तो ठीक है। फिर भी युवरानी का आपसे ज्यादा लगाव है। बार-बार बुलावा आया तो आना-जाना जरा मुश्किल होगा।" दण्डनायिका ने चुटको ली। ___ "वे अगर बुलवाएँ तो प्रदेश का पालन तो करना ही होगा। इसमें किसी तरह की कठिनाई की बात सोचना भी हमारे लिए उचित नहीं।"
"सो तो ठीक है। आपको चलकर थोड़े ही जाना है। पालकी तो होगी ही।" चामने कह ही रही थी कि तभी उत्कल के नाट्याचार्य महापात्र वहीं आ गये और वोले, "आने का आदेश हुआ...ओह, हेग्गड़ती जी आप! आप सब सम्शल हैं?" फिर शान्तला की ओर देखा। पहले तो उन्होंने पहचाना नहीं लेकिन जब शान्तला ने ही मुस्कराकर प्रणाम किया तो बोल उठे, "ओह! ओह! शान्तलादेवी हैं न? कितनी बड़ी हो गयी हो बेटी! मैं पहचान न सका।" महापात्र के मुख पर प्रसन्नता छा गयी।
"वैठिए आचार्यजी, आपसे मिलने के ही लिए हेग्गड़ती जी और उनकी बेटी आयी हैं।" दण्डनायिका ने कहा। उसके कहने के दंग में कुछ व्यंग्य था।
"कहला भेजतीं तो मैं स्वयं वहाँ चला आता ।" महापात्र ने कहा।
सब से पहा आये हैं नाही गे शाटनगराद जी के दर्शन करने का गौरव ही सँजोती रही। आज समय निकालकर दर्शन करने आ पायी। आते समय रास्ते में अम्माजी ने मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। इसलिए दण्डनायिका जी से निवेदन किया था।" हेगड़ती बोली।
“आपके गुरुजी भी आये हैं।" महापात्र ने शान्तला से पूछा।
शान्तला के जवाब देने से पहले ही चामब्बे बोल उठी, "वे सब तो परिवार के व्यक्ति जैसे पाने जाते हैं। आये बिना कैसे रहेंगे?"
"बहुत अच्छा हुआ।" महापात्र ने कहा।
तभी नाश्ता तैयार होने की सूचना मिली। सब उठकर नाश्ता करने चले गये। महापात्र भी उस दिन नाश्ते पर निमन्त्रित हुए थे। पद्मला, चामला, बोपदेवी सभी साथ थे। परन्तु उनके साहित्य के अध्यापक नाश्ते का बुलावा आने से पहले ही चले गये थे।
दण्डनायिका के बच्चों में जैसे एक नया उत्साह आ गया था। पद्मला को तो बड़ा ही रास आया। उस दिन राजमहल से लौटने के बाद से उसे कोई आहार रुचता ही नहीं था। आज उसे वह रुचिकर लग रहा था। वह शान्तला की बग़ल में बैठी थी। चामला शान्तला के दूसरी बग़ल में बैठी थी। सामने की पंक्ति में हेग्गड़ती और दण्डनायिका बैठी थीं और योप्पदेवी चामच की बग़ल में।
90 :: पट्टमहादेवी शान्तला : माग दो