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इसलिए वह बड़े संयम से अन्दर के प्रकोष्ठ में आयी और झूले पर अँठ गयी। हेगड़ती और शान्तला ने अन्दर आकर विनीत भाव से झुककर प्रणाप किया।
लिया गहती नी। ओह आपकी लड़की तो खुब बड़ी हो गयी! बटा वेटी। क्या समाचार हैं! आप सब कुशल हैं न भगवान कृपालु हैं। आपकी अभिलाषा पूरी हुई। दण्डनायिका चामब्बे ने कहा।
आप जैसे बड़ों का आशीर्वाद है। भगवान की कृपा से हम सब कुशल हैं, दण्डनायिका जी। आपने कहा कि हमारी अभिलाषा पूरी हुई, मैं कुछ समझी नहीं। हेगड़ती ने कहा। ___ "हेग्गड़ती जी, हर एक को राजधानी में आकर रहने की इच्छा रहती है। अस्वाभाविक भी नहीं हैं। मैं सोचती हैं ऐसी ही इच्छा आपकी भी रही होगी। इसलिए मैंने ऐसा कहा।"
"यहाँ हम आये । खुशी इस बात की है कि यहाँ उच्च पदाधिकारी रहते हैं। उनसे हमारा सम्पर्क होगा, सहयांग और मार्गदर्शन मिलेगा जिससे हम जीवन में कहीं अधिक सुसंस्कृत हो सकेंगे और प्रगति कर सकेंगे। इसलिए हमें यह एक अच्छा अवसर मिला है। महादण्डनायक जी, प्रधानजी, युवराज. युवगनी आदि सभी ने मिलकर विचार-विमर्श के बाद ही हमें यहां बुलवाया है। इस सौभाग्य के लिए हम सदा कृतज्ञ रहेंगे और निष्ठा के साथ कार्यरत रहना है सो रहेंगे ही। यहां आये एक सप्ताह हो गया, फिर भी आपका आशीवाद लेने न आ सके। रोज सोचते ही रहे, घर से बाहर निकलना ही नहीं हो पाया। अब कुछ व्यवस्थित हुए हैं। हेग्गड़ेजी राजपहल की ओर गये हैं इसलिए समय मिलते ही इस ओर चली
आयी।'' हेग्गड़ती ने नम्रभाव से कहा। ___ "यह क्या, राजमहल आज गये? आज तक आप लोग युवराज और युवरानी के दर्शन के लिए नहीं गये"
"जिस दिन आये थे उसी दिन अकेले ये ही युवराज के दर्शन के लिए गये थे। आज फिर बुलावा आया था।"
“और आप लोग?"
"नहीं, अभी तक नहीं जा पाये। यों भी हम जैसे छोटी सामथ्यवाले जब चाहे तब इच्छानुसार राजमहल में आ-जा भी नहीं सकते दण्टनाबिका जी! उनका समय और उनकी सुविधा सब-कुछ देखनी पड़ती है न?"
सो ता है। यह राजधानी है, बलिपुर नहीं-यह बात आपके अनुभव में आयी होगी। सुना है अम्माजी के गुरु भी आये हैं! अच्छा हुआ, उन्हें भी बुला लिया 1 राजधानी होने पर भी यहाँ अच्छे अध्यापक नहीं हैं। हमने भी तो उत्कल से बुलवाया है न।"
88 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो