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'यहाँ आकर उससे मिले बिना कैसे जाऊँगाः कहाँ है वह?"
"तुम यहीं अप्पाजी से तब तक बातें करो, मैं उसे बुला लाती हूँ।" शान्तला बोली।
"अम्माजी, आप रहने दीजिए। मैं ही जाकर मिल आऊँगा। पिछवाड़े बग़ीची में ही होगा नः" और इतना कहकर बिमय्या बगीची की ओर चला गया।
थोड़ी ही देर में वह लौट आया। तब तक नाश्ता लग चुका था। नाश्ता करने के बाद रेविमय्या ने कहा-"आप लोगों के आने पर हमें नया धैर्य मिला है। मुझे आशा है, जल्दी-जल्दी न आ पाऊँ तो आप लोग चिन्तित नहीं होंगे। अच्छा, अब चलता हूँ हेग्गड़ती जी।" कहकर रेविमय्या चला गया।
शान्तला खुद अलग से राजकुमारों के बारे में पूछताछ करना चाहती थी। परन्तु सबके सामने चुप रहना पड़ा।
दौरसमुद्र में हेगड़े परिवार के पहुँच जाने की खबर दण्डनाविका को भी लग चकी थो। उनके ठहरने के लिए जो निवास दिया गया था यह वही था जिसे दण्डनायिका ने सुझाया था। इसलिए उन लोगों का जब-जब राजमहल जाना होता, उसे पता चलता रहता। दण्डनायिका ने निगरानी रखने के लिए इडिगा से कर रखा था। जिस दिन वे आये थे उसी दिन अकेले हेग्गड़े राजमहल हो आये, इसकी सूचना भी उसे उसी दिन मिल गयीं थी। इसके बाद एक सप्ताह के करीब बीतने पर भी किसी के राजमहल में आने-जाने का समाचार चामध्ये को नहीं मिला।
उस दिन राजमहल हो आने के बाद धामब्बे ने दण्डनायक से जो बातचीत की थी, उस बारे में उसके बाद कोई चचा नहीं हुई। दूसरे दिन दण्डनायक से उसे यह समाचार मिला कि वामशक्ति पण्डित को देश-निकाले का दण्ड दिया गया है। सोचा, चलो यह शनि भी टल गया। वह उसी रात भाग गया था-यह
वर भी दण्डनायक ने सुनायी थी। फिर महाराज से मिलने से पहले सारा समाचार प्रधान गंगराज को बताकर उनकी सलाह के अनुसार ही, वह व्यवहार करने लगा था। उसने जो कहा उस पर विश्वास करके युवराज ने ठीक ही कहा था। परन्तु गंगराज ने क्या सलाह दी? उन्होंने युवराज से क्या कहा: इस सम्बन्ध में दण्डनायक ने अपनी पत्नी को कुछ भी नहीं बताया। दण्डनायिका ने पूछा भी तो दण्डनायक ने डाँट दिया, “यदि इस मामले में तुमने बाधा डाली तो तुम्हें तुम्हारे मायके भेज दूंगा।" इसलिए उसे चुप रह जाना पड़ा। "मैंने तो मन से भी युवराज का कभी बुरा नहीं चाहा, और फिर यह भी उन्हें मालूम है कि वामशक्ति द्वारा दिया गया यन्त्र मैंने कूड़े में फेंक दिया है। फिर भी पतिदेव मुझे
86 :: पमहादेवी शान्तला : भाग दो