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"जैसा तुम चाहो। कल तक चलने लायक हो जाऊँ तो ठीक है।" . ''सब ठीक हो जाएगा प्रभु, पण्डितजी ने भी यही कहा है।"
"यं कभी कोई दूसरी राय नहीं देते । ज्योतिषी, वैद्य कभी बुरी बात पहले नहीं कहते ।।
किसी को नहीं कहना चाहिए। ऐसी हालत में ये ही क्यों बुरी बात कहेंगे? अब आप भी बातें न करें, थकान होगी। किसी तरह की चिन्ता-जिज्ञासा किये बिना आराम कीजिए।"
"ऐसा ही होगा।
वहाँ मौन छा गया। थोड़ी देर में रेबिमय्या ने भोजन लाकर आसन पर रख दिया। ___"बाहर ही रहो रेविमय्या, किसी को अन्दर मत आने दो।" एचलदेवी ने कहा। वह यन्त्रचालित-सा बाहर चला गया और दरवाजे को बन्द कर दिया।
. प्रभु ने थाली में परोसी भोजन सामग्री को देखा और कहा, "मझे निमित्त मात्र के लिए दो कौर पर्याप्त हैं। टेवि! तुम भी साथ भोजन करो तो कैसा रहे!" _ ''प्रभु के आनन्द में मैंने बाधा ही कब डाली है।"
भोजन समाप्त हुआ। घण्टी बजायी। रेविमय्या आया। उसस कहा, ''इस ले जाओ और तुम भी खाकर आ जाओ। तब तक गांका को वहाँ रहने के लिए कर दी। वह दरवाजे पर रहे।''
रेविमव्या हामी भरते हुए थाली उठाकर, "आपके भोजन के बिना...'' कह ही रहा था कि इतने में, “मेरा भोजन हो गया, जो कहा जाय उसे करो, जाओ!" एचलदेवी ने उसे आदेश दिया।
वह चला गया। प्रभु लेटे रहे और चलदेवी पंखा करती रहीं। प्रभु की जरा आँख लग गयी। एचलदेवी ने पंखा नीचे रख दिया। मन-ही-मन भगवान से अत्यन्त आर्त होकर प्रार्थना करने लगीं, “हे अहन ! प्रभु का सिंहासनारोहण आपको अच्छा नहीं लगा? एक समय अवश्य था जबकि वे सचमुच ही सिंहासन चाहते थे लेकिन वे अब बिलकुल नहीं चाहते। उन्होंने तो बड़ों की आज्ञा का पालन करने के उद्देश्य से ही स्वीकृति दी थी। हे भगवन्! आज तुम्हारे दरवाजे पर अपशकुन हुए तो इसका यही अर्थ लगाऊँ कि तुम्हें सिंहासनारोहण प्रिय नहीं लगा। हमें ऐसा ही तो समझना चाहिए न? न उन्हें महाराज बनने की इच्छा है
और न मुझे महारानी बनने की। मेरी मात्र यही इच्छा है कि मेरा सुहाग बना रहे। इसे बचाओ भगवन्!"
खा-पी चुकने के तुरन्त बाद रेविमथ्या आया और बोला, “पाँचों सुमंगलियों ने भोजन कर लिया है। अब उन्हें मंगल द्रव्य, पान-पट्टी आदि दी जानी है। इसके
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग टो : 107