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जय-जयकार दिग्टिगन ना व्याप गयी ! दम दिला जय-नाका मे गत उठीं।
महाराज बिनयादित्य, प्रभु एरेयंग और राजकुमार बल्लाल और युवरानी एचलदेवी ने हाथ जोड़कर सबको प्रणाम किया। प्रजाजन के आनन्दोत्साह ने इनके हृदयान्तराल को भर दिया था।
प्रभु एरेयंग ने चारों ओर नज़र दौड़ायी। महाराज से थोड़ी ही दूर पर पांचों गुरुवर्य और उनसे कुछ ही दूरी पर पाँचों सुमंगलियाँ बैठी थीं। प्रभु ने दोनों तरफ़ झुककर प्रणाम किया। सामने खड़े अश्वराज को देखा। वह भी बहुत सुन्दर ढंग से सजा हुआ था। इसके अतिरिक्त राजमहल के महाद्वार से लेकर अहाते के सदर फाटक तक एक जैसे सजे-सजाये थोड़ों की कतारें आमने-सामने खड़ी थीं। और उन पर सम वस्त्रधारी सवार गौरव रक्षा (सलामी देने) के लिए तैयार थे। फ़ौजी समुदाय के प्रतीक के रूप में यह व्यवस्था की गयी थी। इस प्रसंग में यह व्यवस्था उत्सव के महत्त्व को बढ़ा रही थी। प्रभु ने फिर से जन-समुदाय की ओर नज़र दौड़ायी। एक तरफ़ स्त्री और दूसरी ओर पुरुष समुदाय का समुद्र-सा फैला हुआ था। अहाते के उत्तर और दक्षिण के द्वारों तक सशस्त्र सैनिक करीने से आमने-सामने कतारों में खड़े थे। अश्वपूजा के बाद परिक्रमा के लिए निर्धारित मार्ग की रक्षा के लिए सैनिक पोक्तबद्ध खड़े हुए थे। श्रीमान् महाराज, गुरु पंचक, सुमंगली पंचक, राजमहल से लगे एक तरफ़ बैठे तो दूसरी तरफ़ प्रधानजी, मन्त्रीगण, दण्डनायक. सामन्त राजे, सम्भ्रान्त महापुरुष एवं गण्यमान्य नागरिक बैठे थे।
पुरोहितों द्वारा अश्वपूजा आरम्भ करने से पहले मंगलवाध गूंज उठे। यथाविधि अश्वराज की पूजा सम्पन्न हुई। खुद एरेबंग प्रभु ने चमेली के फूलों की माला अश्वराज को पहनायी। इसकी परिक्रमा करके माथा छूकर उसे प्रणाम किया। पीठ सहलाकर उस पर सवार हुए। बहुत दिनों से उस पर सवार नहीं हुए थे, इस कारण से उस अश्व की तन्द्रा भंग हुई, उसमें उत्साह आया। उसने हिनहिनाकर अपनी खुशी व्यक्त की। एरेयंग प्रभु जिन-मन्दिर, शिव-मन्दिर आदि के दर्शन करके महाद्वार के पास आये। उन्हें महाराज पद प्रदान करनेवाले महाराजा विनयादित्य स्वयं हाथों से थामकर गौरव के साथ राजमहल के अन्दर से लाये । उस दिन के कार्यक्रम यथाविधि सम्पन्न हुए। इन सबके पश्चात् एक कार्य शेष रह गया था। वह था, अन्तःपुर के देवमन्दिर में जाकर युवराज, बुवरानी और दल्लाल को प्रणाम करके आना । पाँचों सुमंगलियाँ पहले ही जाकर मन्दिर के द्वार के दोनों ओर खड़ी हो गयीं थीं। एरेयंग प्रभु ने अन्दर प्रवेश करने के लिए पैर उठाया ही था कि पौर से टकरा गये। वे गिरने ही वाले थे कि तुरन्त एचलदेवी ने जो उनके बग़ल में थी और दो सुमंगलियों ने उन्हें थाम लिया। गिरने से बच गये। फिर ये पत्नी-पुत्र
पट्टमहादेवी शान्तला : माग दो :: 105