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र अभी तब नहीं पहुंची थी इसलिए नायिका ने सलाह दी कि जाते वक़्त अपनी बेटियों को भी साथ ले जाना चाहिए। युवराज ने दण्डनायक को और सुबरानी ने दण्डनानिका को देखने के इरादे से सूचना भिजवाई थी। दण्डनायक की दृष्टि में वह एक सामान्य बात ही थी। उन्होंने इतना ही कहा कि बच्चियाँ चलने के लिए तैयार हों तो लेती चलो। राजमहल जाने की तैयारी होने लगी। चामब्बे को चलते वक़्त अचानक याद आयी कि आज राजकुमार बल्लाल का जन्मदिन भी है। जन्मदिन के इस अवसर पर बुलावे के न आने पर दण्डनायिका को कुछ असन्तोष भी हुआ। धीरे से इस बात को पति के कानों में फुसफुसाया भी। बेटियाँ अभी तैयार होकर नहीं आयी थीं कि तभी दण्डनायक ने कहा- "युवराज की अस्वस्थता के कारण सब-कुछ अन्तःपुर तक ही सीमित है। अच्छा हुआ, तुम्हें याद आ गयी। यह भी एक अवसर हैं, अब जब राजमहल जा ही रहे हैं तो राजकुमार को जन्मदिन के उपलक्ष्य में भेंट देने के लिए कुछ लेकर चलना चाहिए।"
चामन्ये भीतर गयी ।
कुछ ही देर में सब तैयार होकर राजमहल की तरफ़ निकले। इनके आने की पूर्व सूचना न होने के कारण वहाँ का सेवक बिज्जिगा उन्हें प्रतीक्षा प्रकोष्ठ में बैठाकर अन्तःपुर से अनुमति लेकर आया तो उसके साथ दो परिचारिकाएँ भी आयीं । दण्डनायक को सेवक युवराज के विश्राम कक्ष तक ले आया। परिचारिकाओं में से एक दण्डनायिका को युक्रानी के अन्तःपुर- प्रकोष्ठ में ते गयी। दूसरी उन लड़कियों को अध्ययन कक्ष में ले गयी ।
कवि नागचन्द्र जी का अध्यापन चल रहा था । पद्मला, चामला और बोप्पदेवी - तीनों वहाँ एक भद्रासन पर जाकर बैठ गयीं ।
बिनिदेव चामला को देख मुस्करा उठा । बलाल ने उनके आने का एहसास होने पर भी अपनी ग्रीवा ऊपर नहीं उठायी। उदयादित्य ने ऐसी आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा मानो बहुत दिनों बाद आयी थीं। वह सब-कुछ ऐसे ढंग से हुआ कि अध्यापन कार्य में कहीं व्यवधान नहीं आया। चामला और वोपि को यह सब सहज ही लग्श, मगर पद्मला का मन कुछ म्लान हो आया। बल्लाल ने उसकी ओर देखा भी नहीं । मुँह भी जैसे फुलाए बैठा हो । यह कुछ कर भी तो नहीं सकती थी। अपने घर पर ऐसा हुआ होता तो शायद उठकर चली जाती । यह राजमहल हैं। बैठने को कहने पर बैठना होगा। जहाँ बुलाएँ वहाँ जाना होगा। ऐसी स्थिति में वह लाचार थी, बैठे रहना पड़ा ।
पाठ चल रहा था । कवि चक्रवर्ती रन्न का 'साहस भीमविजय पढ़ा रहे थे- दुर्योधन कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर की छावनी में चर्चा
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 67