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"की में रहने पर किसी की नजर उस पर नहीं पड़ेगी, कूड़े के साथ चला जाएगा। कार में रहने से यह भावना बनी रहती कि वह यहाँ है। इन घामाचारियों से तो भगवान बचाए।"
''पहले से इतनी अक्ल आ गयी होती तो कितना अच्छा होता! पर हाँ, चोट लगने पर ही तो अक्ल आती है।"
"अब क्या करना होगा?" 'तुम्हारे भाई से विचार-विमर्श कर निर्णय करूँगा कि क्या करना चाहिए।" ''हाय! भैया से न कहें?"
"तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं। मुझे जैसा लगेगा करूँगा। इसमें तुमने एक ही अच्छा काम किया है, वह यह कि तुमने बच्चों को इन बातों से दूर रखा है।"
"अब पद्मला का क्या होगा:" मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।" 'मतलब"
“अभी मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा है। शान्त चित्त होने पर ही सोच सकूँगा। उसे कुछ तसल्ली दी है न। अच्छा, अब तुम जा सकती हो।”
चामव्ये धीरे-से कियाई खोलकर बाहर निकल गयी।
दण्डनायक सोचते-सोचते लेट गये। कब आँख लगी सो उन्हें भी पता न चला।
इन सभी प्रसंगों के बीच एक ही ऐसा प्रसंग था जो टण्डनायिका के मन को कुछ सन्तोष दे सका और वह था हेगड़े परिवार के टहराने की व्यवस्था। पूर्व सूचना के अनुसार हेगड़ेजी का परिवार दोरसमुद्र जा पहुँचा और ईशान में स्थित उस निगस में ठहराया गया। काफी समय से खाली पड़ा रहने के कारण इस निवासस्थान का पिछवाड़ा एक जंगल-सा बन गया था। कहाँ बलिपुर के निवास का पिछवाड़ा और कहाँ यह झाड़-झंखाष्ट्र से भरा जंगल। उन्होंने तत्काल उसे साफ़ कराने का निश्चय किया। बलिपुर के निवास से यह निवास बड़ा ही था। इसलिए हेगडेजी के सारे परिवार को वहाँ ठहरने में कोई दिक्कत नहीं पडी। सारे परिवार को निवास में टहराकर हेग्गड़ेजी उसी यात्रा के लिबास में अकेले राजमहल प्रभु के दर्शन करने जा पहुँचे। सबके राजधानी सुरक्षित पहुँचने का समाचार सुनकर युवराज सन्तुष्ट हुए। परस्पर कुशल-क्षेम के बाद प्रभु एरेयंग ने कहा, ''अच्छा हेगड़ेजी, आप इस लम्बी यात्रा से थक गये होंगे। निवास-स्थान को व्यवस्थित कराकर पहले जाकर विश्राम करें। बाद में यहाँ के कार्य के सम्बन्ध में यथावश्यक
पट्टमहादयी शान्तला : भाग दो :: 8]