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विश्वास दिखाना चाहिए था।"
तो क्या जिस बात को नहीं कहना चाहिए उसे भी कह देती ?" भला ऐसा तुमने क्या देखा - कम-से-कम मुझे तो बताओ।" " अब जाने भी दो उस बात को "
"अभी यह प्रसंग समाप्त नहीं हुआ है। प्रभु को तब तक समाधान नहीं होगा जब तक यह मालूम न हो जाय कि तुमने क्या देखा था । "
"मतलब ?"
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"लगता है, प्रभु ने मन-ही-मन निश्चय कर रखा है कि यह बात जानकर ही रहेंगे। उन्होंने इसी आशय से मुझसे यह पूछा कि मैं यह सब जानता हूँ। जब मैंने कहा कि नहीं जानता तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। मेरे पूछने पर भी तुमने बताया नहीं - जब मैंने यह बात कही तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। वे शायद यही सोचते होंगे कि मैंने झूठ कहा। अन्त में वह क्या बोले जानती हो? 'दण्डनायक जी, हमने आप पर पूरा भरोसा रखा है। हमारी मान्यता है कि आप हमसे कोई बात नहीं छिपाएँगे। परन्तु इस सम्बन्ध में आप कुछ आगा-पीछा कर रहे हैं। हमारे बारे में आपका यह व्यवहार कहाँ तक उचित है यह खुद ही सोच लें।' मैंने कहा, 'भगवान की सौगन्ध हैं, मैं कुछ नहीं जानता।' 'दर्याफ़्त कर सच-सच जानकारी दीजिए।' प्रभु ने कहा यह भी कहा, 'जब तक सारी बात स्पष्ट नहीं हो जाती है तब तक मेरा मन शान्त नहीं होगा। कल प्रातः तक आपकी तरफ़ से हमें सही सूचना मिल ही जानी चाहिए।' इतना कहकर बात ख़त्म कर दी। तुम्हारी सलाह के मुताबिक विवाह की बात छेड़ने के लिए मौका ही नहीं मिल सका। अपराधी की तरह उनके सामने बैठे रहने की हालत थी । कम-से-कम अब तो सब कुछ बता दो। अगर अब भी नहीं बताना चाहती हो तो हमें आज ही रात सारे परिवार के साथ राजधानी छोड़ देनी होगी। आगे तुम्हारी मरजी। मुझे अब तक सत्यनिष्ठ माना जाता रहा, किन्तु इस ढलती उम्र में अब तुम्हारी वजह से सर झुकाना पड़ रहा है । "
"मैं स्वयं जब उसमें विश्वास नहीं करती तो उसे कहने से क्या लाभ? मैं जिसे देखना चाहती थी वह तो दिखा ही नहीं ।"
"किसे देखने की चाह घी?"
"मैंने सोचा था कि मेरी बैरी बलिपुर की हेग्गड़ती दिखेगी, जो अब दोरसमुद्र में ही बैठकर हमारे उस आशा-सौध को ढहाने में लगी है ।"
"तो तुम्हें कौन दिखाई पड़े?"
"बतलाना ही होगा : "
" बतलाने की इच्छा न हो तो बिस्तरा बकुना बाँध लो, रात ही को कूच कर
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 79