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कहीं से शुरू हुई थी और कहीं आकर रुकी। मैं उमंग से वहाँ गयी थी और जब लौटी तो निराश होकर। अब तो आप खुश हैं। हमारी पद्मला का भविष्य अब समाप्त हुआ समझी। ऐसा क्यों हुआ, यहीं मालूम नहीं पड़ा। राजकुमार का भी मन बदला हुआ-सा लगता है।" इस तरह विस्तारपूर्वक दण्डनायिका को जो कहना था सो सब कह दिया-राजमहल में हुई सारी बात भी और अपनी बात भी।
"राजकुमार का मन भी बदल गया? किसने कहा?'' दण्डनायक ने पूछा ।
"प्रस्तुत प्रसंग से ही यह स्पष्ट हो जाता है। वहाँ-जहाँ ये सब बच्चे थे, क्या हुआ, मालूम है" दण्इनायिका ने वह सारा वृत्तान्त भी कह सुनाया और पद्यला को समझाने-बुझाने की राय भी दी और फिर पूछा, “अब आप भी बताइए, प्रभु मे आपसे क्या कहा?"
दण्डनायक तुरत कुछ नहीं बोले। दण्डनायिका ने अभी तक जो कुछ बताया यह उनके भीतर घुमड़ रहा था। युवरानी की बातें उन्हें जैसे भीतर-ही-भीतर चांद रही थीं। ये सोचने लगे : फिर भी उन्होंने वामशक्ति पण्डित के बारे में कुछ नहीं कहा : तो क्या उस सम्बन्ध में उन्हें जानकारी नहीं थी? या जानकर भी कुछ नहीं बोली? राजकुमार का व्यवहार तो सचमुच अप्रत्याशित था। ऐसी हालत में उन्हें पदाला के विषय में यदि सन्देह होता है तो कोई आश्चर्य नहीं। पर, पद्मला किस तरह से उनके सन्देह का कारण बन सकती हैं? हाल में हुई भेंट के समय भी वे सदा की तरह सहज भाव से पिले। अब ऐसा अचानक क्यों हुआ : इन विचारों में वह तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे। उन्हें लगा कि बेटियों को साथ न ले गये होते तो अच्छा होता। उन्होंने यह अपनी पत्नी से भी कहा। ___ मालिक मना कर देते तो मैं ही क्यों अनुरोध करती?" टण्डनायिका ने उत्तर दिया।
“मैंने समझा था कि सब ठीक है। परन्तु सोचा कुछ और हुआ कुछ और। मैं अब सिर उठाकर चल भी नहीं सकता। इस सबका कारण तुम हो। किसी का कहा न मानकर तुमने ऐसी हालत पैदा कर दी है।"
''हाँ, सारी बुराई की जड़ मैं ही हूँ। सारी ग़लती मुझ ही पर थोप दीजिए।"
'साल-भर से ज़्यादा नुप रहकर फिर तुम उस बामशक्ति पण्डित के पास क्यों गयीं? अंजन लगाने की स्वीकृति क्यों दी? मुझसे पूछा था...?"
आपसे पूछा नहीं, ग़लती हुई। पर आपने उसे घर पर क्यों बुलवाया? मैं तो इससे वही समझी थी कि आपकी भी स्वीकृति है।"
"मैंने उस बात को गुप्त ही रखने के इरादे से ऐसा किया था।" "अभी प्रकट ही क्या हुआ? उस अंजन की बात किसे मालूम है? यदि यह
पट्टमहावी शान्तला : भाग दो :: 77