________________
'आपको ऐसे भाई की वैसी बहिन बनकर उन्हें और अधिक गौरवान्वित करना चाहिए, टण्टनायिका जी।' ___मैं मायर्क और ससुग़ल दोनों घरानों की प्रतिष्ठा को बनाये रखने का सदा प्रयास करती आयी हूँ। राजघराने के उदार आश्रय में रहकर ही हम उस गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा करने में समर्थ हुए हैं।
गौरव और प्रतिष्ठा का आप प्रदर्शन करें तो उसका कोई मूल्य नहीं होता। जब दूसरे लोग खुद प्रेरित होकर इस गौरव की भावना को अपने-आप व्यक्त करें तभी उसके महत्त्व का मूल्य है।'
'दूसरों द्वारा व्यक्त न होने पर उस गौरव-प्रतिष्ठा की क्रम-से-कम कोई हानि तो नहीं होगी।
"ऐसा समझना केवल भ्रम होगा। गौरव कोई प्रदर्शन की वस्तु नहीं, दण्डनायिका जी। वह बाजार में विकनेवाली चीज़ भी नहीं। कौन आँक सकता हैं उसका मूल्य! अधिकार या ऐश्वयं के प्रदर्शन से नहीं मिलता गौरव । यदि मिलता भी है तो वह अन्तर की प्रेरणा से प्राप्त गौरव नहीं। जो अन्तस की प्रेरणा से प्राप्त गौरव होगा वही शाश्वत होगा। स्थान-मान के कारण मिलनेवाला गौरव कभी शाश्वत हो सकता है।"
'इतनी दूर तक सोचने की मुझमें सामथ्र्य कहाँ?'
'आप जिस स्थान पर हैं. जसा सपान पर रनेवालों को याताल परनी चाहिए।'
'बचपन में हमें ऐसा शिक्षण ही नहीं मिला।
'यह सब शिक्षण मात्र से नहीं आता, दण्डनाविका जी। मन की संकीर्णता को, स्वार्थ को छोड़कर यदि विशान्न मनोभाव से सभी बातों को हृदयंगम किया जाए, उन्हें आचरण में उतारा जाए तो वह स्वयं मालूम हो जाएगा। अलग से शिक्षण की आवश्यकता ही कहाँ : उदाहरण के लिए कहती हूँ। मैं, आप और माचिकब्बे साधारण पहनावे पहनकर अपरिचिल लोगों के बीच में पहुँच जाएँ ती लोग हमारी हस्ती-हैसियत को पहचान सकेंगे?'
'नहीं।'
‘ऐसे स्थान पर भी लोग यदि आपके बारे में सदभाव रखें तो वह आपके व्यक्तित्व की शक्ति है। वही गौरव का प्रथम चरण है। इसलिए पद वा अधिकार के गर्व से हम अपने को भुला दें और अपने व्यक्तित्व को विकसित न करें तो हम ऊँचे स्थान पर रहने योग्य नहीं बन सकेंगे। इस वजह से ऊंचे स्थानों पर रहनेवाले हम लोगों का क्या यह कर्तव्य नहीं हो जाता कि कार्य-कारण संयोग से हम अपने से निम्न स्तर पर रहनेवालों का मार्गदर्शन करें?'
पट्टमहादेवी शान्तला : भागयो::75