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ताल्लुक नहीं।' पण्डित ने कहा।
'तुम्हारे प्रयत्न से वह स्त्री उसकी हो गयी।"
इसलिए तो उसे मुझ पर विश्वास है। बिना शक्ति के हमारा काम नहीं बलता, यह कोई ढकोसला नहीं, मालिक।"
''कौन है वह स्त्री?" ''यह...वह...एक गुड़सवार की पत्नी है।"
''क्या कहा? एक की पत्नी को दूसरे के वश में कर दिया!" गंगराज के होठ गुस्से से फड़क रहे थे।
"जो हमसे पाँगते हैं, उन्हें हम भस्म अभिमन्त्रित करके दे देते हैं। ये जिसको चाहते हैं, उन पर उस भस्म को फेंकते हैं। बस, वशीकरण हो जाता है। और फिर जो वशीभूत हो जाते हैं उनके बारे में जानने की इच्छा नहीं रह जाती। इसलिए हम दोषी नहीं होते।" पण्डित ने साहस बटोरकर कहा। मन-ही-मन वह यह निर्णय कर चुका था कि अव तो वह शिकारी के हाथ पड़ गया है। शिकार बनना ही होगा इसलिए बस्तुस्थिति जैसी है वैसी कहकर क्यों न परिस्थिति का सामना किया जाय।
"तो क्या तुम्हारा कहना है कि अन्याय को प्रोत्साहित करके भी तुम आछूते रह जाओगे? यही है न तुम्हारा मतलब?"
“यदि हमें पहले से मालूम हो जाय तो उसका दंग ही अलग होता है। आमतौर पर हमें मालूम नहीं रहता। इसलिए हम तो यही सोचकर चलते हैं कि हम जो कुछ करते हैं वह उपकार का ही काम है?"
"उस मवार का नाम क्या है।" "मायण।'' "और उस स्त्री का?" "चट्टला।" ''तुभने अपने लिए कितनी स्त्रियों को वश में कर रखा है।" "हम अपनी शक्ति का उपयोग स्वयं अपने लिए नहीं कर सकते।" "तो, दुनिया को बरबाद करना ही वामाचारियों का काम है?"
“मतभेद है। हमारी शक्ति से बहुत-से लोगों को तृप्ति मिलती है। जो निराश रहते हैं उनकी आशाएँ सफल होती हैं। इसलिए हमारा विश्वास है कि हम जो करते हैं वह उद्धार का ही काम है।"
"यह उद्धार नहीं, घर तोड़ना है। हमारी राजधानी में भविष्य में ऐसे सब कार्यों के लिए अवकाश नहीं। तुमने अब तक किस-किस का इस तरह का उद्धार किया-उस सबका ब्यौरा हमें देना होगा। इससे भी मुख्य बात यह कि गत
51 :: पट्टमहादेवी शान्ताला : भाग दो