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अभी-अभी यह समाचार मिला है। उन पर हमें बहुत विश्वास है यह बात किसी से छिपी नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि वहीं विश्वास आप भी उन पर रखें। वे राजपसने की आन्तरिक व्यवस्था के लिए ही नियोजित हैं। फिर भी उनके यहाँ आने पर किसी-न-किसी तरह आपके साथ सीधा सम्बन्ध हो ही जाएगा, व्यावहारिक मामलों के कारण। जिस तरह हमें उनके प्रति विश्वास है, वैसा ही जब तक आपको भी नहीं हो जाए तब तक आप उनके प्रति सतक रहकर व्यवहार करेंगे। इससे हमें सुविधा होगी। हमारे साथ उनके मेल-जोल की बात ध्यान में रखकर आपको भी चैसा व्यवहार रखने की जरूरत नहीं। आप प्रधान हैं, वह मात्र एक हंग्गड़े। उन्हें भी अपने पद, अपनी मर्यादाओं का ज्ञान है. उनका व्यवहार उसी हात का होगा : हार के र स मोक, व्यवहार क्यों न करे, उन्हें औचित्य की सीमा से बाहर कभी नहीं जाना होगा।'
"जैसी आपकी आज्ञा।"
'युवरानी जी कह रही थी कि दण्डनायिका जी इधर कुछ समय से नहीं आयीं। दण्डनायक जी से सपत्नीक आने को कह दें।"
"आज हो?" "जब उन्हें फुरसत हो, आ जाएं।" "जो आज्ञा ।" "अच्छा प्रधाननी।" गंगराज उठे नहीं, बैट ही रहे। "क्या कुछ और बताना चाहते हैं?'' "कल महासन्निधान से भेंट की थी। वे बहुत परेशान हैं।"
"हमारी अस्वस्थता उन्हें चिन्तित बनाये होगी। आपको उन्हें धीरज बँधाना चाहिए। आपको मालूम है न, अब सिलहार के वैद्य भी आ गये हैं। अब चिकित्सा और अच्छी तरह से होगी।"
यह पहासन्निधान को मालूम है। जब सिलहार के वैद्यजी ने आपकी जाँच कर ली तो उन्हें उन्होंने बुलाकर उनसे विचार-विमर्श किया था। इसलिए प्रभु की इस अस्वस्थता के बारे में हमें उनसे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। स्वयं वैद्यजी पूरी तरह आश्वस्त कर चुके हैं।"
"तो फिर महासन्निधान की परेशानी का क्या कारण हो सकता है?" "उनके रहते आपका सिंहासनारोहण नहीं हुआ इसलिए।" "छि: दि. ऐसा कहीं हो सकता है, प्रधानजी?"
"यह सही है या ग़लत, इसकी चर्चा मैं नहीं करूंगा। पता नहीं उनका | अन्तमन क्या है कि जब कभी हम उनसे मिलने जाते हैं तो इतना जरूर कहते
64 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो