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सत्य जैसा रूप देना और दिखाना बही उस अंजन का काम है। उनको जो दिखता हैं। उसे ही तो वे कहते हैं।"
"तुम लोग दृष्टि केन्द्रित करने का जो तन्त्र करते हो, उससे व्यक्ति की अपनी ही कल्पना यथारूप धारण करके वहाँ दिखने लगती है। यही एक भ्रम पैदा हो जाता है। है न?" ___"वह देखनेवालों के निर्णय पर छोड़ दिया जाता है। हम उसका विमर्श नहीं करते।"
__ “तो चाहे झूठ हो या सच, भ्रम हो या कल्पना, कुछ भी हो, जो तुम्हारे पास आते हैं उन्हें तृप्ति मिलनी चाहिए-इतनी ही तुम्हारी दृष्टि है। यही न?" ।
"मदद मांगते हुए जो आएँ उन्हें तृप्त करना हमारा काम है।" । "उसमें झूठ-मूठ या काल्पनिक बताकर तृप्त करना भी होता है?"
"जो मांगने आते हैं, उनको जो दिखता है वह सब सत्य है-हमारा तो यही विश्वास है।"
"यदि वह मिथ्या हो तो उससे कितने अनर्थ हो सकते हैं-यह जानते हो?" "वह मिथ्या है, ऐसा हम नहीं मानते।"
"तुम क्या मानते हो यह अलग बात है किन्तु यदि वह मिथ्या है तो उसके फलस्वरूप अनर्थ तो होगा ही?"
"हो सकता है।"
"हो सकता है! दूसरे की पत्नी को वशीकरण करके उसे किसी दूसरे को दे देना, किसी ने कुछ कहा उसे सुनकर सज्जनों को तकलीफ़ देना, सौहार्द में द्वेष पैदा करना-यह सब करके भी तुम लोग निर्लिप्त हो। पण्डित सुनो, कल सुबह होने से पहले तुम्हें दोरसमुद्र छोड़ देना होगा। इस पासल राज्य में कहीं तुम्हारी छाया भी दिखी, वहीं तुम्हें मौत के घाट उतार दिया जाएगा। कल यह आदेश जारी कर दिया जाएगा। तुम्हें इस राज्य की सीमा से बाहर जाने के लिए दो पखवारों की अघधि दी जाती है। यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम अकेले हो, तुम्हारा परिवार नहीं है। होता तो उन बेचारों को तुमसे कितनी तकलीफों का सामना करना पड़ता। उठो, बाहर निकलो, यहाँ क्या सब हुआ इसका किसी को पता तक न लगे। यहाँ से इस तरह निकलोगे मानो कुछ हुआ ही नहीं, जैसे आये वैसे जाओ। तुम्हारे राजधानी से निकल जाने, राज्य की सीमा छोड़ने आदि कोई भी बात कानों-कान किसी को मालूम नहीं होनी चाहिए। समझे? चलो, जाओ यहाँ से!"
"मैंने एक भी झूठी बात नहीं कही, प्रधानजी। जैसे का तैसा सब-कुछ सुना दिवा है।" _ "इसी से तुम्हारी जान बच गयी हैं। परन्तु तुम जैसे आदमी की इस पोसल
62 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो