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किसी काम में न लगी हों तो यहाँ भेज दो।' प्रधु ने कहा।
बल्लाल खड़ा हो, पिता को प्रणाम कर हाथों से परदा हटाकर वहाँ से निकल गया तथा प्रभु का आदेश माँ को सुनाकर अपने काम में लग गया।
युवरानी एचलदेवी प्रभु के पास आयीं। इस बीच प्रभु पलंग पर लेट गये थे। एचलदेवी उनके पैताने जा बैठी। प्रभु ने छाती पर से हाथ उठाकर पत्नी की ओर बढ़ाया। वह उसे अपने हाथ में लेकर सहलाने लगीं। प्रभु ने करवट बदली और दूसरे हाथ से युवरानी के हाथ का स्पर्श कर बोले, “देवि, हम फिर इस आकाश, सूर्य और तारों से घिरे चन्द्र को देख सकेंगे या नहीं, मालूम नहीं। कभी जीवन में हम अधीर नहीं हुए थे। अभी हाल में पता नहीं कोई अगोचर शक्ति हमें निचोड़ने लगी हैं। हमें ऐसा ही प्रतीत हो रहा है इसलिए हममें जो धैर्य है उसे तुम्हें समर्पित कर रहे हैं। पता नहीं कब अकेली रहकर कष्टों का सामना करने का भार तुम पर आ पड़े..." तुरन्त एचलदेवी ने प्रभु के मुंह पर हाथ रख दिया। बोली, ''प्रभु को ऐसा नहीं करना चाहिए। चारुकीर्ति पण्डित ने कहा है, कोई तकलीफ़ नहीं है। सिलहार राज्य के वैद्यजी के आ जाने से उनमें अब दो-एक दिन से नया ही धैर्य आ गया है।''
"भगवान की इच्छा के सामने मनुष्य का धैर्य टिक नहीं पाता।"
"ऐसी हालत में उस शक्ति पर भरोसा रखकर जीवन में दृढ़ता के साथ आगे बढ़ना ही उचित है। आपके मुँह से कभी अधीरता की बात नहीं निकली। लगता है, आज कोई विचित्र बात आपके कानों में पड़ी है। वह क्या है बताएं तो हो सकता है, उसके निवारण की बात सोचकर कह सकती हूँ," युवरानी ने कहा।
"ऐसी कोई बात नहीं।" कहते हुए प्रभु रुक गये।
''प्रभु! मुझसे छिपाने जैसी कोई बात आपके मन में है। प्रधानजी को बुलवा लेना एक बात है, परन्तु अप्पाजी को भी उनके साथ बातचीत करते वक़्त पास बैठाने का कुछ माने जरूर है। इसीलिए मैंने उसी से पूछा लेकिन वह कुछ न कहकर खिसक गया। प्रभु ऐसा न करेंगे-वह मेरा विश्वास हैं। वह क्या हैं, बताइए प्रभु!'' युवरानी ने आग्रह किया।
युवराज एकटक देखते रहे, कुछ बोले नहीं।
"प्रभु, यात मन में ही दबी रहे तो बह दीपक की तरह अन्दर-ही-अन्दर कुरेदती रहेगी। उसे प्रकट करने पर मन कुछ हल्का हो जाएगा। यात कैसी भी हो मुझसे कह सकते हैं। यदि प्रभु का विश्वास खो बैठी हूँ तो फिर जोर नहीं दे सकती
"हम नहीं चाहते कि तुम्हारा शान्त मन उद्विग्न हो, इसलिए इस तरह की राजकाज की बात तुम तक न ही पहुँचें-यह सोचकर हमने चुप रहना ही ठीक
पट्टमहादेयी शान्तला ; भाग दो :: 51