Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं थी। एकदा आपके स्थूल शरीर व उदराकार पर पनिहारिन बहिनों द्वारा किये गये व्यंग्य कि 'ढूंढिया के भी पेट है' का दिया गया प्रत्युत्तर आपकी प्रत्युत्पन्नमति, गांभीर्य व अंतर्निरीक्षण का द्योतक है
तू ने कही ऊपर से, मैंने पेखी ठेठ
__ और खटका सब मिट गया, एक रह गया पेट ।। ___आपने २६ वर्ष तक कुशलतापूर्वक सम्प्रदाय का संचालन किया। आपके शासन काल में १३ मुनियों की | | दीक्षा हुई। आपने विभिन्न क्षेत्रों में ४९ चातुर्मास कर धर्मज्योति को प्रज्वलित किया। वि.सं. १९३६ वैशाख शुक्ला २ को पेट में भयंकर दर्द होने लगा। दर्द की तीव्रता से आपने समझ लिया कि अब अन्तिम समय आ गया है। आपने साधुओं के समक्ष आलोचना की और पंच परमेष्ठी को वंदन कर सभी जीवों से क्षमायाचना की। अगले दिन पूर्ण उपयोगपूर्वक संथारे की विधि करते हुए अनशनविधि का उच्चारण करते-करते पूज्य श्री के प्राण परलोक के लिये प्रयाण कर गये, मानो वे संथारे की विधि में पूर्णता की ही प्रतीक्षा कर रहे थे।
वादीमर्दन श्री कनीराम जी महाराज आपके प्रमुख सहयोगी संत थे, जिन्होनें पंजाब जैसे क्षेत्रों में उग्र विहार कर वहां संघ में शान्ति व ऐक्य कायम किया व वहां भी जिन शासन की महती प्रभावना की। आपने तेरापंथ की मान्यताओं के खंडन हेतु 'सिद्धान्तसार' ग्रन्थ की रचना की। जीवन में आपने अनेक बार चर्चा व शास्त्रार्थ कर विपक्षियों को परास्त किया।
आचार्य श्री के शिष्यरत्नों में उनके पट्टधरशिष्य पूज्य श्री विनयचंदजी महाराज, पूज्य श्री शोभाचंदजी महाराज, चंदनसम शीतल श्री चंदनमलजी महाराज, तीक्ष्ण मेधा के धनी स्वाध्याय प्रेमी श्री मुल्तानमलजी महाराज के नाम उल्लेखनीय हैं।
__ आचार्य श्री कजोड़ीमलजी महाराज के महाप्रयाण के पश्चात् उनके शिष्य रत्न श्री विनयचन्दजी महाराज रत्नवंश परम्परा के आचार्य बने। आपका जन्म फलौदी में ओसवंशीय राजमान्य प्रतिष्ठित सद्गृहस्थ श्री प्रतापमलजी पुंगलिया की धर्मपरायणा धर्मपत्नी रम्भाकुंवर की रत्न कुक्षि से वि.सं. १८९७ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के दिन हुआ। आपके चार भाई और एक बहिन थी।
___ संयोगवश अचानक ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया और परिवार की सारी जिम्मेदारी आप पर आ पड़ी। व्यापार के आरम्भ में समर्थ सहायक की आवश्यकता अनुभव कर आप पाली (जहाँ आपके बहिन-बहिनोई निवास करते थे) आ गये। यहाँ विशेष पुण्योदय से आपको पूज्य श्री कजोडीमलजी महाराज के पावन दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आचार्य श्री की वैराग्योद्बोधक वाणी सुन कर आपके हृदय में वैराग्य भाव का वपन हुआ और आपने अपने विचार लघु भ्राता श्री किस्तूरचंदजी के समक्ष प्रकट किये। लघु भ्राता ने भी अग्रज का अनुसरण करने का संकल्प कर लिया। दोनों ही बन्धु पूज्य श्री की सेवा में रह कर साधुता सम्बन्धी ज्ञानाभ्यास करने लगे। वि.सं. १९१२ मार्गशीर्ष कृष्णा २ को दोनों बन्धुओं ने अजमेर में पूज्य श्री के पास श्रमण दीक्षा अंगीकार की। दोनों बंधुओं ने ज्ञानाभ्यास में अपने आपको पूर्ण मनोयोग पूर्वक संलग्न कर लिया। थोड़े ही अन्तराल में आपने ऐसी योग्यता सम्पादित कर ली कि आप धाराप्रवाह रूप से शास्त्रों का व्याख्यान करने लगे। दुर्दैव से अनुज भ्राता मुनि श्री किस्तूरचंदजी महाराज का असामयिक देहावसान हो गया। युगल जोड़ी खंडित हो गई।
___ प्रकृति की कोमलता, विनय व समर्पण से आप पूज्य गुरुदेव व सभी के प्रीति पात्र बन गये। बुद्धि की तीव्रता और अव्याहत श्रम से आप जैनागमों के तलस्पर्शी ज्ञाता बन गये। पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी महाराज