________________ प्रथमः सर्गः। 24 अथास्याश्चिन्ताजागरावाह-अहो इति / हिमागमे हेमन्तेऽपि स्मरादितां तां दमयन्ती प्रति अहोभिदिवसैः तिमहिमा अतिवृद्धिः प्रपेदे तथा तप पूर्तावपि. ग्रीष्मान्तेऽपि विभावरीभिनिशाभिः मेदसा भरा मांसराशयोऽतिवृद्धिरिति यावत् / विराम्बभूविरे बभ्रिरे, भृक्षः कर्माण लिट भामप्रत्ययः / अहो आश्वय्य शास्त्रविरो. धादनुभवविरोधाच्चेति भावः / विरहिणां तथा प्रतीयत इत्यविरोधः, एतेनास्या निरन्तरचिन्ता जागरश्च गम्यते / अहोशब्दस्य 'मोदिति प्रगृह्यत्वात् प्रकृतिभावः // कामपीडित उस दमयन्तीके लिए हेमन्त ऋतुमें भी दिन बड़े होने लगे तथा ग्रीष्म ऋतुकी पूर्णता होने पर मी रात्रियां बड़ी हो गयीं, यह आश्चर्य है। (हेमन्त ऋतुम दिन तथा ग्रीष्म ऋतुमें रात्रि पर्याप छोटी होती थी, तथापि कामपीडित उस दमयन्तीके लिए वे बड़ी प्रतीत होती थीं) // 41 // स्वकान्तिकीतिब्रजमौक्तिव सज: अयन्तमन्तर्घटनागुणश्रियम् / कदाचिदस्या युवधैर्यलोपिनं नलोऽपि लोकादशृणोद् गुणोत्करम् // 42 // __स्वेत्यादि / अथ नलोऽपि स्वस्य कास्या सौन्दर्येण याः कीर्तयः तासां व्रजः पुक्ष एव मौलिकमक मुक्काहारः तस्या अन्तः अभ्यन्तरे घटनागुणश्रियं गुम्फनसू अलक्ष्मी श्रयन्तं भजन्तं युवधैर्यलोपिनं तरुणचित्तस्थैर्यपरिहारिणम् अस्या दम. यस्या गुणोरकरं सौन्दर्यसन्दोहं लोकादागन्तुकजनात अशृणोत् / अत्र कीतिब्रज गुणोरकरयोर्मुक्काहारगुम्फनसूत्रस्वरूपणाद्पकालधारः // 42 // (मथ दमयन्ती-विषयक नलानुरागका वर्णन करते हैं-) अपने अर्थात् दमयन्तीके (या-नरूके) सौन्दर्य-विषयक कीति-समूहरूप मोतियों की मालाके योचमें (या-नल के मन में ) [यनेवाले धागेकी शोमाको प्राप्त करते हुए तथा युवकोंके धैर्यको नष्ट करने वाले इस दमयन्तीके गुण-समुहको किसी समय नलने भी लोगोंसे सुना। [सौन्दर्यकीर्तिके शुभ्र होने से उसमें मोतीकी कल्पना की गयी है। मुक्तामालाको गूंथने के लिए बीचके धागेके समान जो दमयन्तीके गुण-समूह थे, वे नल के चित्तमें मालाके समान गुम्फित हो गये / नरुने दमयन्तीके गुण-समूहको लोगोंसे सुना ] // 42 // तमेव लब्ध्वावसरं ततः स्मरश्शरीरशोभाजयजातमत्सरः / अमोघशक्त्या निजयेव मृतया तया विनिमये नैषधम / ४शा अथास्य तस्यां रागोदयं वर्णयनि-तमेवेति / ततो गुणश्रवणानन्तरं शरीरशो भाया देहसौन्दर्यस्य जयन जातमत्सरः उत्पन्नवरः स्मरः तमवावसरमवकाश लच्या मूर्तया मूर्तिमन्या नजया अमोघशक्तयेव अकुण्ठितसामने वेत्युत्प्रेक्षा। तया दमयन्त्या नैषधं नलं विनितुमियष इच्छति स्म, रयान्वेषिगो हि विद्वेषिण इति भावः / तेन रामोदय उक्तः // 43 // तदनन्तर ( नरूको शरीर-शोभादारा अपनी ) शरीर-शोमाके जीते जानेसे मात्सर्य