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मूलगुणाधिकार १ ।
ऋषभादिजिनवराणां नामनिरुक्तिं गुणानुकीर्ति च । कृत्वा अर्चयित्वा च त्रिशुद्धप्रणामः स्तवो ज्ञेयः ॥ २४ ॥ अर्थ — ऋषभ अजित आदि चौवीस तीर्थंकरोंके नामकी निरुक्ति अर्थात् नामके अनुसार अर्थकरना, उनके असाधारण गुणको प्रगट करना, उनके चरणयुगलको पूजकर मनवचनका - की शुद्धता से स्तुति करना उसे चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं ॥ २४ ॥ आगे वंदनाका खरूप कहते हैं:
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अरहंतसिद्धपडिमातवसुद्गुणगुरुगुरूण रादीणं । किदिकम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो ॥ २५ ॥
अरहंतसिद्धप्रतिमातपःश्रुतगुणगुरुगुरूणां राधीनाम् । कृतकर्मणा इतरेण च त्रिकरणसंकोचनं प्रणामः ।। २५ ।। अर्थ - अरहंत प्रतिमा, सिद्धप्रतिमा, अनशनादि बारह तपोंकर अधिक तपगुरु, अंगपूर्वादिरूप आगमज्ञानसे अधिक श्रुतगुरु, व्याकरण न्याय आदि ज्ञानकी विशेषतारूप गुणोंकर अधिक गुणगुरु, अपने को दीक्षादेनेवाले दीक्षागुरु और बहुतकालके दीक्षित राधिकगुरु - इनको कायोत्सर्गादिक सिद्धभक्ति गुरुभक्ति रूप क्रियाकर्मसे तथा श्रुतभक्ति आदि क्रियाके विना मस्तक नमानेरूप मुंडवंदनाकर मन वचन कायकी शुद्धिसे नमस्कार करना वह वंदना नामा मूलगुण है ॥ २५ ॥
आगे प्रतिक्रमणका स्वरूप कहते हैं:
दव्वें खेत्ते काले भावे य किदावराहसोहणयं । निंदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिकमणं ॥ २६ ॥