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मूलाचार
गति हमेशा मेरी भी होवे ( रहे )। मैं दूसरी कोई अभिलाषा व याचना नहीं करता । भोगकी अभिलाषाका नाम निदान है इसलिये यहां निदान नहीं हुआ ॥ १०७ ॥ इसतरह अधिकार समाप्त हुआ। इसप्रकार आचार्यश्रीवट्टकेरिविरचित मूलाचारकी भाषाटीकामें
बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव अधिकार समाप्त हुआ ॥ २ ॥
.. संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार ॥३॥
आगे अकस्मात् सिंहादिके निमित्तसे मरण आजाय तो क्या करना उसके लिये यह संक्षेप प्रत्याख्यान अधिकार कहते हैं उसमें भी पहले मंगलाचरण करते हैं;एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स वड्माणस्स। सेसाणं च जिणाणं सगणगणधराणं च सव्वेसिं १०८
एषः करोमि प्रणामं जिनवरवृषभस्य वर्धमानस्य । शेषाणां च जिनानां सगणगणधराणां च सर्वेषाम् ॥१०८॥ अर्थ-यह मैं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष वट्टकेराचार्य मुनिराजोंमें श्रेष्ठ श्रीमहावीरस्वामीको, तथा यति मुनि ऋषि अनगार ऐसे चार प्रकारके संघसहित गौतमखामीको आदिलेकर सब गणधरोंको और शेष वृषभादि पार्श्वनाथ तीर्थंकरोंको आदिलेकर अन्य केवलियोंको नमस्कार करता हूं ॥ भावार्थ-सब पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करता हूं ॥ १०८ ॥