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षडावश्यकाधिकार ७।
२०९ अर्थ-जगतको प्रकाश करनेवाले उत्तमक्षमादि धर्मतीर्थके करनेवाले सर्वज्ञ प्रशंसाकरने योग्य प्रत्यक्षज्ञानी जिनेंद्रदेव उत्तम अहंत मुझे बोधि (सम्यक्त्वसहित ज्ञान ) दें ॥ इसमें दश गुण कहे हैं उनसे स्तुति की गई है ॥ ५३९ ॥
अब प्रथम लोकका स्वरूप कहते हैंलोयदि आलोयदि पल्लोयदि सल्लोयदित्ति एगत्थो। जह्मा जिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ॥५४०॥
लोक्यते आलोक्यते प्रलोक्यते संलोक्यते इति एकार्थः। यसाजिनैः कृत्स्नं तेन एष उच्यते लोकः ॥ ५४०॥
अर्थ-जिसकारणसे जिनेंद्र भगवानकर मतिश्रुतज्ञानकी अपेक्षा साधारणरूप देखा गया है, अवधिज्ञानकी अपेक्षा कुछ विशेष देखागया है, मनःपर्ययज्ञानकी अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञानकी अपेक्षा संपूर्णरूपसे देखागया है इसलिये यह लोक कहा जाता है ॥ ५४० ॥ णाम हवणं दव्वं खेत्तं चिण्हं कसायलोओ य । भवलोगो भावलोगो पज्जयलोगो य णादवो ॥५४१॥ नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं चिह्नं कषायलोकश्च ।। भवलोको भावलोकः पर्यायलोकश्च ज्ञातव्यः ॥ ५४१॥
अर्थ-नामलोक स्थापनालोक द्रव्यलोक क्षेत्रलोक चिह्नलोक कषायलोक भवलोक भावलोक पर्यायलोक-इस तरह लोकके नौ निक्षेप जानने ॥ ५४१ ॥ णामाणि जाणि काणिचि सुहासुहाणि लोगमि। णामलोगं वियाणाहि अणंत जिणदेसिदं ॥५४२॥
१४ मूला.