________________
षडावश्यकाधिकार ७ ।
स्तेनितं प्रतिनीतं चापि प्रदुष्टस्तर्जितं तथा ।
शब्दश्च हीलितं चापि तथा त्रिवलितं कुंचितं ॥ ६०५ ॥ दृष्टः अदृष्टश्वापि च संघस्य करमोचनं । आलब्धः अनालब्धश्च हीनमुत्तरचूलिका ।। ६०६॥ मूक दर्दुरं चापि चुलुलितमपश्चिमं । द्वात्रिंशद्दोष विशुद्धं कृतिकर्म प्रयुंक्ते ॥ ६०७ ॥
अर्थ – आदर विना क्रियाकर्म करना अनाहत दोष है, विद्यादि गर्व से करना स्तब्ध दोष है, पंचपरमेष्ठीके अतिसमीप होके करना प्रविष्ट है, हस्त आदिको पीड़ा देके करना परिपीडित है, हिंडोलेकी तरह आत्माको संशय युक्तकर करना दोलायित है, अंकुशकी तरह हाथका अंगूठा ललाटके प्रदेशमें कर वंदना करे उसके अंकुशित दोष है, कछवाकी तरह कमर से चेष्टाकर वंदना करे उसके कच्छपरिंगित दोष है | मत्स्योद्वर्तदोष, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भयदोष, विभ्यदोष, ऋद्धिगौरव, गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्ददोष, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन, आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चुलुलित, - इन बत्तीस दोषों से रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है उसके बहुत निर्जरा होती है || ६०३ से ६०७तक किदियम्मंपि करंतो ण होदि किदियम्मणिजराभागी । बत्तीसाणण्णदरं साहू ठाणं विराधंतो ।। ६०८ ।।
कृतिकर्माणि कुर्वन् न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी । द्वात्रिंशतामन्यतरं साधुः स्थानं विराधयन् ।। ६०८ ॥ अर्थ —बत्तीसदोषोंमेंसे किसी एक दोषको आचरण करता हुआ
२२९