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मूलाचारआऊग वेदणीयं चदुहिं खिविइत्तु णीरओहोइ ॥१२४३ तत औदारिकदेहं नाम गोत्रं च केवली युगपत् । आयुः वेदनीयं चत्वारि क्षपयित्वा नीरजा भवति ॥१२४३॥ अर्थ-योगनिरोध करके अयोग केवली होनेके बाद वे अयोग केवली जिन औदारिक शरीरसहित नामकर्म, गोत्रकर्म आयुकर्म और वेदनीयकर्म इन चार अघातिया कोका क्षयकर कर्मरूपी रजरहित निर्मल सिद्ध भगवान हो जाते हैं।
भावार्थ-अयोगकेवली अपने कालके दूसरे अंतसमयमें बहत्तरि कर्मप्रकृतियोंका क्षय करते हैं फिर अंतके समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाशकर शरीर छोड़ निर्मल सब उपाधियोंसे रहित अनंतगुणमयी सिद्ध परमात्मा हुए मोक्षस्थानमें सदा विराजते हैं ॥ १२४३ ॥
इसप्रकार आचार्यश्रीवट्टकेरिविरचित मूलाचारकी हिंदीभाषाटीकामें पर्याप्ति आदिको कहने. वाला बारवां पर्याप्ति-अधिकार
समाप्त हुआ ॥ १२ ॥
PANDIT