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पर्याप्ति - अधिकार १२ ।
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कर्मणां यस्तु रस अध्यवसानजनितः शुभोऽशुभो वा । बंधः सः अनुभागः प्रदेशबंध ः अयं भवति ॥ १२४० ॥ अर्थ — ज्ञानावरणादि कर्मोंका जो कंषायादि परिणामजनित शुभ अथवा अशुभ रस ( फलदानशक्ति ) है वह अनुभागबंध है । तथा प्रदेशबंधका स्वरूप अब आगे कहते हैं ॥ १२४० ॥ सुमे जोगविसेसेण एगखेत्तावगाढठिदियाणं । एकेके दुपदे से कम्मपदेसा अणंता दु ॥ १२४१ ॥ सूक्ष्मा योगविशेषात् एक क्षेत्रावगाढस्थिताः । एकैकस्मिन् तु प्रदेशे कर्मप्रदेशा अनंतास्तु ।। १२४१ ॥ अर्थ – मनवचनकायकी क्रियारूप योगविशेषसे एक ही जगहमें स्थित आत्माके एक एक प्रदेशपर विराजमान सूक्ष्म ज्ञानावरणादि कर्मपरमाणू अनंत हैं । १२४१ ॥ यहां तक कर्मबंधका स्वरूप कहा ।
आगे कर्मों के क्षय होने का क्रम कहते हैं; - मोहस्सावरणाणं खयेण अह अंतरायस्स य एव । उववज्जइ केवलयं पयासयं सव्वभावाणं ॥ १२४२ ॥ मोहस्यावरणयोः क्षयेण अथ अंतरायस्य चैव । उत्पद्यते केवलं प्रकाशकं सर्वभावानां ।। १२४२ ॥
अर्थ — मोहनीय कर्म और ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतरायकर्म इन चार घातिया कर्मोके नाश होनेसे सब पदार्थों को प्रकाशनेवाला ऐसा केवलज्ञान प्रगट होता है । १२४२ ॥
आगे केवली होनेके बाद कर्मक्षय होनेका विधान कहते हैं;तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली युगवं ।