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पर्याप्ति - अधिकार १२ ।
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वेइंदियादियाणं पज्जन्तीओ असण्णित्ति ॥ १०४६ ॥ एकेंद्रियेषु चतस्रो भवंति तथा आदितच पंच भवंति । द्वींद्रियादिकानां पर्याप्तयः असंज्ञीति ।। १०४६ ॥ अर्थ – पृथ्वीकाय आदि एक इंद्रियवालों के आदिकी चार पर्याप्ति होतीं हैं और दो इंद्रियको आदि लेकर असैनी पंचेंद्रिय पर्यंत पांच पर्याप्ति होती हैं ॥ १०४६ ॥
छप्पिय पज्जत्तीओ बोधव्वा होंति सण्णिकायाणं । एदाहिं अणिव्वत्ता ते दु अपजत्तया होंति ॥१०४७॥ पडपि च पर्याप्तयो बोद्धव्या भवति संज्ञिकायानां । एताभिः अनिर्वृतास्ते तु अपर्याप्तका भवंति ।। १०४७ ॥ अर्थ - आहारादि छहों पर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रियजीवोंके होती है । इन पर्याप्तियों से जो अपूर्ण हैं वे जीव अपर्याप्त हैं ॥१०४७॥ पज्जन्तीपजत्ता भिण्णमुहुत्तेण होंति णायव्वा । अणुसमयं पज्जत्ती सव्वेसिं चोववादीणं ॥ १०४८ ॥ पर्याप्तिपर्याप्ता भिन्नमुहूर्तेन भवंति ज्ञातव्याः । अनुसमयं पर्याप्तयः सर्वेषां चोपपादिनां ।। १०४८ ॥ अर्थ — मनुष्य तिच जीव पर्याप्तियोंकर पूर्ण अंतर्मुहूर्तमें होते हैं ऐसा जानना । और जो देव नारकी हैं उन सबके समय समय प्रति पूर्णता होती है ॥ १०४८ ॥ जह्मि विमाणे जादो उववाद सिला महार हे सयणे । अणुसमयं पज्जतो देवो दिव्वेण रूवेण ॥। १०४९ ॥ यस्मिन् विमाने जातः उपपादशिलायां महार्हे शयने । अनुसमयं पर्याप्तो देवो दिव्येन रूपेण ॥। १०४९ ॥